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Thursday 13 June 2013

विदेह जनक की सभा में ब्रह्म वादिनी स्त्री सुलभा
प्राचीन दृष्टांत है के विदेह जनक की सभा में ब्रह्म वादिनी स्त्री सुलभा दिगंबर अवस्था में पहुँच गयी थी. उसे देख कर सभासद सन्न रह गए और उन्होंने आँखे झुका कर उसकी भर्त्सना की. उनके व्यवहार पर सुलभा को आश्चर्य  हुआ क्यूंकि उस ने सुना था की जनक अध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा  पा चुके थे. यहाँ तक की ऋषि वेदव्यास ने अपने शिवजी से प्राप्त पुत्र शुकदेव को जनक के पास आत्मज्ञान पानेके लिए भेजा था. सुलभा ने हंस कर कहा की ,-"मैंने तो सुना था की राजर्षि जनक की सभा ज्ञानियों की सभा है. किन्तु यहाँ तो सारे शूद्र(तामस  बुद्धि वले वाले जो केवल देह रूपी आत्मा के वस्त्र को ही देख पाते हैं आत्मा को नहींहैं! " भगवान् महावीर  जैसे समाधी प्राप्त व्यक्ति जानते थे की शरीर तो स्वयम आत्मा का वस्त्र है जिसे प्रकृति रूपी माता ने उन्हें दिया है. प्रकृति के दिए परिधान को एक और परिधान से ढकने की उन्होंने आवश्यकता नहीं समझी और दिगंबर घूमने लगे. योग के अंतिम सोपान समाधि  में पहुँच कर भी जीव आत्मा को यही अनुभूति होती है की वह प्रकृति रूपी माता के गर्भ में सुरक्षित है. पिता के शरीर में शुक्राणु के रूप से होकर जीव आत्मा माता के अंडाणु से संयोग कर नए शरीर का निर्माण करती है किन्तु समय आने पर प्रकृति उसे माता के गर्भ से निकाल कर बाहर फेंक देती है जिससे वह फिर से अपनी स्वंतंत्र यात्रा कर सके. आत्मा स्वयम ही अपनी हर स्थिति के लिए अपने पिछले कर्म के बंधन में बंधे होने के कारण अपना उत्थान या पतन करती है. अहंकारी पुरुषों ने केवल परिवार और समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए केवल  पुरुष प्रधान रीति रिवाज़ बनाए बल्कि धर्म के क्षेत्र  में भी धर्म गुरु के रूप मे लोगों को अपने अधीन बनाये रखने का प्रयास किया. गुरुभक्तिके नाम पर अज्ञानी लोगों को अपने शब्द जाल और व्यक्तित्व के सम्मोहन में उलझा कर उनका भावनात्मक और आर्थिक शोषण किया. परिवार में पुरुषों और सम्बन्धियों से प्रताड़ित  और भावनात्मक रूप से आहत महिलायें उनकी सरल शिकार बनी और कुण्डलिनी जागरण के नाम पर ढोंगी पुरुषों ने उनका यौन शोषण तक किया.
कठ उपनिषद् में कहा गया है की "नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो मेया बहुना श्रुतेनयमे वशा तेन लभ्यस्तस्येशः आत्मा विवृणुते तनु स्वाम ." जिसका सीधा अर्थ है की परमात्मा बहुत पढ़ने से नहीं मिलता ,बुद्धि की युक्तियों से भी नही मिलता ,उपदेश सुनने से भी नहीं मिलता बल्कि जिसे वह ब्रह्म स्वीकार कर लेता है,  उसे ही प्राप्त होता है और उसी के लिए वह अपने आप को प्रकाशित कर देता है . स्त्री का स्वभाव भी ऐसा ही हैयही नकी  स्वाभाविक वृत्ति है. उसे भय या प्रलोभन से नहीं पाया जा सकता. वह जिसे पसंद करती है उसके सामने स्वयं को प्रकाशित करती है या अपना स्नेह प्रकट करती है. कोई भी अहंकारी पुरुष स्त्री के ह्रदय पर भय या लालच दे कर शाश्वत सत्ता स्थापित नहीं कर सकता. इसीलिये त्रिया चरित्र को पुरुषों के लिए दुर्गम्य माना  गया है
 
स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने जीवन काल में अपनी अनेकों पत्नियों के प्रति अपने स्नेहिल और निष्ठावान व्यवहार से एक आदर्श पति का उदाहरण प्रस्तुत किया .वह अनेकों पत्नियों के पति थे .लिंग पुराण के अनुसार उनकी सोलह हज़ार एक सो आठ रानियाँ थीं. सोलह हज़ार रानियाँ अपने पिछले जन्म में भगवान् कृष्ण की सेवा और स्तुति कर के उन से यह वरदान ले चुकीं थी की कृष्ण उनके पति बनेंगे. उस युग में भगवान् कृष्ण नारायण नामक और अर्जुन नर नामक  दो भाई थे जो धर्म नामक देवता के पुत्र थे. जिन्होंने साथ साथ बदरिका आश्रम में दो पर्वतों पर घोर तपस्या की थी. उनकी तपस्या से घबरा कर इन्द्र ने हर संभव प्रकार से उन के तप को भंग करना चाहा, किन्तु असफल रहे . देवराज इन्द्र ने फिर बसंत और कामदेव को स्वर्गलोक की सोलह हज़ार सुन्दरतम अप्सराओं के साथ नर और नारायण की तपस्या भंग करने के लिए भेजा. दोनों युवाओं ने देखा की पर्वत मंडल पर बिना शरद और शिशिर ऋतु   के आने से  पहले ही बसंत का आगमन हो गया था. प्रकृति में हर तरफ मादकता और मन मोहक सुगंध व्याप्त हो गयी थी. उन्हें समझते देर लगी की अवश्य ही उनके दुर्गम तप से घबरा कर ही स्वर्ग के राजा  देवराज इन्द्र  ने उन्हें परास्त करने के लिए षड़यंत्र रचा था. उनके सामने बसंत और कामदेव अपने पूरे  प्रभाव में प्रकृति पर छा  रहे थे. महात्मा नारायण ने तुरंत अपनी जंघा या उरु से एक अतीव मोहक स्त्री  को प्रकट किया जिसके सौंदर्य पर मोहित हो कर बसंत और कामदेव मतवाले हो गए और भूल गए की देवराज इन्द्र ने उन्हें नर नारायण को भृष्ट करने के लिए भेजा था. कृष्ण के उर से उत्पन्न  होने के कारण उस सुन्दरी का नाम हुआ उर्वशी . उर्वशी ने अपना प्रभाव फैला कर नारायण और नर की सहायता की. सोलह हज़ार संगीत पर थिरकती स्वर्ग की अप्सराओं के गर्व को चूर करने के लिए नारायण ऋषि ने सोलह हज़ार स्वर्ग अप्सराओं से भी सुन्दर और आकर्षक अप्सराओं को अपने संकल्प से उत्पन्न किया . नारायण ऋषि तो स्वर्ग की अप्सराओं पर मोहित हुए और ना ही अन्य तपस्वियों की  तरह क्रोधित हो कर उन्होंने  उन्हें श्राप ही दिया.युवा नारायण के इस प्रकार काम और क्रोध दोनो से ऊपर उठी अवस्था को देख कर स्वर्ग अप्सरायें चकित रह गयीं . वह नारायण के चरणों में गिर पडीं और अनेक प्रकार से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करने लगीं. उनकी विनय और स्तुति से प्रसन्न ऋषि नारायण ने उन से वरदान माँगने को कहा . स्वर्ग अप्सराओं ने कहा की आप हमारे पति हो जाईये. यह सुन कर नारायण दुविधा में पढ़ गए .यदि वह उनके पति बन जाते तो उनकी तपस्या का नाश निश्चित था . अतः उन्होंने उन स्वर्ग अप्सराओं को वरदान दिया की अपने अगले जन्म में वह उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार करेंगे . अतः वह अप्सराएं कृष्ण की सोलह हज़ार पत्नियां  बनी जिनके लिए द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने सोलह हज़ार सोने के महल बनवाये थे जहाँ रत्नों के दीप और मणियों के द्वार लगे थे. देवर्षि नारद इन हजारों महलों में द्वारकाधीश कृष्ण को अनेक प्रकार के पारिवारिक कृत्यों में रत देख कर अभिभूत रह गए थे और उन्होंने श्री हरि के चरणों में मस्तक नवाया था . कृष्ण के जीवन का यह दृष्टांत जन्म जन्म तक चलने वाले स्त्री पुरुष सम्बन्ध  का चरम उदहारण है .स्त्रियों से सम्बन्ध सुरक्षित रखने के विषय पर धर्म राज युद्धिष्ठिर जैसे विद्वान,विनम्र  और अनुशासित पुरुष भी शंकित रहते थे . अतः अपनी शंका के निवारण के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया था.

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