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Thursday 13 June 2013


कलंकित चंद्रदेव 

एक एक बार धन और यौवनके मद में भरे महाकामी चंद्रदेव गंगा नदी के किनारे घूम रहे थे जहां उन्होंने देव गुरु बृहस्पति की आकर्षक धर्मपत्नी देवी तारा का दर्शन पाकर उन के प्रति अगाध अनुराग प्रकट किया ,-हे रमणी श्रेष्ठ !क्षण मात्र रुको .तुम चतुर पुरुषों के मन का अपहरण करने वाली हो .बृहस्पति ने हजारों जन्म की तपस्या के फल में तुम्हे देवी दुर्गा से प्राप्त किया है .किन्तु मूर्ख ब्रह्मा ने तुम्हे  एक तपस्वी के गले बाँध दिया .उस अज्ञानी के साथ तुम्हे कौन सा सुख मिलता होगा ?चतुर स्त्री का चतुर पुरुष के साथ समागम सुख सागर होता है .तुम युवा हो और वह बूढ़े .जिन पति -पत्नीके मन के विषय अलग हों उन्हें एक दूसरे से क्या  सुख मिलेगा ?इस बसंत के समय में मेरे साथ माधवी वन में फूलों की सेज पर विहार करो .मंदराचल की गुफा मे मेरे साथ रमण करो .नर्मदा के किनारे वन में देवताओं के प्रिय स्थान में मेरे साथ विहार करो ...."ऐसा कहते हुए वह देवी तारा के चरणों में गिर गए .उनके इस व्यवहार पर तारा का गला सूख गया और आँखें लाल हो गयीं .निर्भय हो कर वह बोलीं .-"हे चन्द्र ! तुम्हे धिक्कार है .मैं तुम्हे तिनका समझती हूँ .पर स्त्री लम्पट होने के नाते तुम महा मूर्ख हो. अत्री का दुर्भाग्य था की उन्हें तुम जैसा बेटा मिला .मन के दूषित होने के कारण तुम्हारा पुण्य बेकार चला गया .यदि तुमने मेरे सतीत्व नाश किया तो तुम्हे तपेदिक का रोग हो जाएगा .दुष्टों के अभिमान का नाश करने वाले भगवान् कृष्ण तुम्हारे दर्प का नाश करेंगे .मैं तुम्हारी माता हूँ .मुझे छोड़ दो ..." कहते हुए वह रोने लगीं .चन्द्रमा ने फिर भी उन्हें पकड़ कर अपने रथ पर बिठा लिया . सौ वर्षों तक चन्द्रमा ने देवी तारा के साथ बलपूर्वक विहार किया  और फिर भयभीत होकर दैत्य गुरु शुक्राचार्य की शरण ली . शुक्राचार्य ने चन्द्रमा को अभयदान दिया और देवगुरु बृहस्पति का उपहास किया . सती स्त्री के सतीत्व का नाश करने के कारण चंद्रदेव के निर्मल मंडल में कलंक लग गया . शुक्राचार्य ने तब चन्द्रमा से कहा ,-"तुम महर्षि अत्री के पुत्र हो .हे पुत्र तुम्हारा यह कर्म नीच है .राजसू यग्य के करने पर तुम्हे निर्मल कीर्ति मंडल प्राप्त हुआ था किन्तु तुमने उसमें कलंक लगा लिया .मैं चाहता हूँ देवगुरु बृहस्पति की पत्नी को तुम छोड़ दो .यह महासती है .ब्रिहस्पती भी धर्मात्मा हैं .देवों के अधीश्वर शिव हैं ,उनके गुरुपुत्र ब्रह्मा हैं  और उनके पुत्र अंगीरा के पुत्र पुत्र बृहस्पति हैं जो ब्र्हम्तेज से नित्य प्रज्ज्वलित रहते हैं .शत्रु के भी गुणों को कहना चाहिए और गुरु के दोष को भी .जहाँ धर्मात्मा रहते है वहां सनातन धर्म रहता है ,,जहाँ धर्म रहता है वहां कृष्ण रहते हैं ,जहाँ कृष्ण हैं विजय भी वहीँ है.हिंसक नष्ट हो जाते हैं .धर्म ही धार्मिक की रक्षा करता है .सती भामनी के साथ बल प्रयोग द्वारा उपभोग करने पर सौ ब्रह्म हत्या का पाप लगता है .इस ब्राह्मणी को छोड़ दो और जो पाप हो गया है उसका पश्चात्ताप करो .पापों से निवृत्त होना ही महा फल है .मेरी शरण में आने के कारन तुम्हारी रक्षा करना मेरा धर्म है ." ऐसा कह कर शुक्राचार्य ने चन्द्रमा के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान किया और भगवान् विष्णु की पूजा की .भगवान् का प्रसाद उसे खिलाया और गोद में बिठा कर कहा ,-"यदि हमारा तप सत्य है,हरी का पूजा फल सत्य है ,व्रत का फल सत्य है ,सत्य बोलने का फल सत्य है ,तीर्थों का स्नान फल सत्य है ,दान का फल सत्य है और उपवास का फल सत्य है तो आप पाप मुक्त हो जाएँ . तीनों संध्यों से रहित और भगवन विष्णु की अर्चना करने वाला ब्राह्मण चन्द्रमा के इस महाघोर पाप का भागी हो .अपने स्त्री को धूर्तता से ठग कर जो परायी स्त्री का उपभोग करता है वह पापी चन्द्रमा के इस पाप से युक्त होकर घोर नरक में जाए .जो दुष्ट स्वभाव वाली कटु भाषिणी स्त्री वाणी द्वारा अपने पति को प्रताड़ित करती हो वह चन्द्रमा के पाप द्वारा लालामुख(लार से भरे ) नरक में जाए.जो द्विज भगवान् को भोग लगाये बिना अन्न का भोजन करता है वह चन्द्रमा के पाप से कालसूत्र नरक में जाए .जो स्त्री अपने पति को वंचित करके पर पुरुष के पास जाती है वह चन्द्रमा के इस पाप से अग्निकुंड नामक नरक में जाये.जो ब्राह्मण ब्याज ले ,भगवान् के नाम को बेचे, अपनी प्रशंसा करे,वह इस पाप का भागी हो और चन्द्रमा इस पाप से मुक्त हो जाए .

अनेक अन्य पाप कर्म करने वाले मनुष्यों के लिए चन्द्रमा के पाप का वितरण कर के शुक्राचार्य ने देवी तारा से कहा ,-"हे महासाध्वी !चन्द्रमा को छोड़ कर अब अपने पति के पास चली जा . शुद्ध मन होने के नाते तू प्रायश्चित बिना ही शुद्ध है ,काम हीन स्त्री बलवान जार के द्वारा दूषित होने पर भी अदूषित ही रहती है."

बृहस्पति ने स्नान के लिए गयी हुयी तारा के वापस आने पर अपना एक शिष्य उसे खोजने के लिए भेजा .शिष्य ने रोते हुए उन्हें तारा के अपहरण का समाचार सुनाया .बृहस्पति दुःख से मूर्छित हो गए . चेतन प्राप्त होने पर वह शोक और लज्जा से विलाप करने लगे .--"मुझे किसने श्राप दे दिया,मैं इस कारण को नहिं जानता हूँ .धर्म विरोधी प्राणी को ही दुःख प्राप्त होता है . जिसके घर में पतिव्रत और मधुर भाषिणी स्त्री नहीं हो उसे जंगल में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और जंगल एक सामान ही हैं .जिस घर में स्त्री है वही घर है ,क्योंकि स्त्री ही घर है .स्त्री विहीन पुरुष देव और पितृ कर्म में अपवित्र माना गया है .सुनार जैसे सोने के बिना और कुम्हार जैसे मिटटी के बिना असमर्थ होता है वैसे ही गृहस्थ गृह की अधिष्ठात्री देवी अपनी  शक्ति रूप गृहणी के बिना निरंतर अशक्त रहता है .जितनी क्रियाएं हैं वह स्त्री द्वारा ही आरम्भ होती हैं .गृह स्त्री के कारण ही बनते हैं .गृहस्थों को गृह में सुख स्त्री से ही प्राप्त होता है .हर्ष स्त्री मूलक होता है .सभी मंगल स्त्री से ही होते हैं .रथ का संचालक जैसे रथी होता है वैसे ही गृहस्थों की संचालिका उनकी प्रिय पत्नी होती है .सभी रत्नों में स्त्री रत्न प्रधान है ." शोक मग्न देवगुरु घर के अन्दर जाकर वहीँ विलाप करते रहे . उनके शिष्यों ने उनके समझाया और तब वे देवराज इन्द्र के घर गए . इन्द्र के पूचने पर उन्होंने सारा वृत्तांत सुनाया . क्रोधित देवराज ने तुरंत एक हज़ार गुप्तचर भेजे और समय आने पर दूतो ने बताया की चन्द्रमा शुक्राचार्य के घर विश्राम कर रहा है . देवराज इन्द्र गुरु बृहस्पति को लेकर ब्रमलोक गए जहाँ ब्रह्मा ने उन्हें बृहस्पति के पूर्व पाप का स्मरण कराया जब उन्होंने अपनी गर्भिणी भाभी ममता का अपहरण कर उसका उपभोग किया था क्योंकि बृहस्पति शिवजी के गुरुपुत्र हैं अतः ब्रहमाजी ने उन्हें चलकर भगवान् शिव को सब कुछ बताने की सलाह दी और फिर  वे तीनों शिवलोक गए. कैलाश पहुँच कर देवगुरु बृहस्पति ने शंकर भगवान् को प्रणाम किया और लज्जा से कन्धा झुका कर उनके सामने बैठ गए .शिवजी के पूछने पर वह बोले ,-"हे ईश्वर !यद्यपि मेरा समाचार कहने योग्य नहीं है तब भी कहूँगा.पराने अनेक जन्मों में जो भी कर्म करता है उसका फल उसे प्रत्येक जन्म में भोगना पड़ता है .बिना उपभोग किये कर्म का फल नष्ट नहीं होता .मनुष्य का स्वभाव अपने पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार ही होता है .पूर्व जन्म के अनुसार ही सुख ,दुःख ,भय और शोक होता है ..." बृहस्पति के मुख सेआगे के वृत्तांत सुन कर भगवन सही के हाथ से जपमाला गिर गयी ,आँखें लाल हो गयीं और वह क्रोध से कांपने लगे . कुछ समय बाद वह बोले ,-"जो प्राणी अच्छी स्थिति में रह कर वैष्णवों को दुःख देता हैउसका संहार भगवान् श्रीकृष्ण करते हैं .जो वैष्णव नहीं है उसका ह्रदय शुद्ध नहीं होता .मन के निर्मल होने में भगवान् श्रीक्रिश्नके मन्त्र का जप ही कारन होता है .यद्यपि देवगुरु बृहस्पति के श्राप से निमेश मात्र में सेंकडों चन्द्रमा भस्म हो सकते हैं ,तब भी धर्म भंग होने के भय से इन्होने उसे श्राप नहीं दिया .जो क्रुद्ध होकर श्राप देते हैं उनकी तपस्या कम होती जाती है .अहो तपस्वी महर्षि अत्री के परस्त्री लोभी शत पुत्र हो ,यह आश्चर्य है .वैष्णव लोग अनेकों पीदियों का उद्धार कर देते हैं .केवल हरि के मन्त्र मात्र लेने से मनुष्य जीवन मुक्त हो जाते हैं .गरुण से सर्प की तरह यमराज उस से भयभीत होते है .

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