आकर्षण का सिद्धांत
आध्यात्म विज्ञान और ज्योतिष दोनों के अनुसार मन चन्द्रमा से प्रभावित होता है . जैसे सागर में चन्द्रमा के घटने और बढ़ने के साथ ज्वार और भाटा आता है उसी तरह मनुष्य का मन भी चन्द्रमा की गति से भावनात्मक रूप से प्रभावित होता है .
भारतीय दर्शन के अनुसार चन्द्रमा के सत्ताईस पत्नियाँ हैं यानी वह सत्ताईस नक्षत्रों में भ्रमण करता है . इन्ही नक्षत्रों के अनुसार प्रत्येक मनुष्य का जन्म नक्षत्र निर्धारित होता है .
श्रवण ,पुनर्वसु ,हस्त,स्वाती ,रेवती ,अनुराधा ,अश्विनी ,पुष्य और मृग शिरा नक्षत्र में जन्म लेने वाले मनुष्य देव ;मघा ,चित्रा ,विशाखा ,कृत्तिका ,ज्येष्ठा ,धनिष्ठा ,शतभिषा ,मूल और आश्लेषा नक्षत्र में जन्म लेने वाले राक्षस और पूर्व फाल्गुनी ,पूर्वआशाढ़ा, पूर्व भाद्र पद ,उत्तरा फाल्गुनी ,उत्तर आषाढ़,उत्तर भाद्र पद ,रोहिणी ,भरनी और आर्द्र नक्षत्र में जन्म लेने वाले मनुष्य होते हैं .
विभिन्न नक्षत्रों में जन्म लेने के कारण मनुष्य के तीन गण होते हैं
-देव , राक्षस और मनुष्य
. देव और राक्षस गण के व्यक्ति सामान्यतया एक दूसरे के प्रति अधिक समय तक आकर्षित नहीं रह पाते क्योंकि उनका मूल स्वभाव बिलकुल अलग होता है . देव -देव के साथ एक प्राकृतिक सामंजस्य और राक्षस
,राक्षस के साथ सुख का अनुभव करता है . मनुष्य गण के लोग दोनो के साथ निभा सकते हैं पर मनुष्य के साथ अधिक सहजता का अनुभव करते हैं. अलग नक्षत्रों में जन्म लेने के कारण मनुष्यों की अलग अलग योनी होती हैं . जो हैं ,-
श्रवण व पूर्वआशाढ़ा- वानर (बन्दर ),
पुनर्वसु- मार्जार(बिल्ली ), स्वाती व हस्त -
महिष (भैंस ), रेवती व भरनी-
गज(हाथी ), अनुराधा- मृग (हिरन ),
अश्विनी- अश्व(घोड़ा ),पुष्य—मेष(भेढ़), मृग शिरा-
सर्प(सांप ); मघा – मूषक(चूहा ), चित्रा व विशाखा – व्याघ्र(बाघ ),कृत्तिका-
मेष(भेढ़ ),ज्येष्ठा- मृग(हिरन), धनिष्ठा-
सिंह(शेर ), शतभिषा- अश्व(घोड़ा ),मूल व आर्द्र – श्वान(कुत्ता ), आश्लेषा-
मार्जार(बिल्ली ),
पूर्व फाल्गुनी- मूषक(चूहा),पूर्व भाद्र पद- सिंह (शेर ), उत्तरा फाल्गुनी व उत्तर भाद्र पद - गाय, उत्तर आशाढ़ा-
नकुल(नेवला ),
रोहिणी – सर्प(सांप ).
श्वानऔर मृग में ,नकुल और सर्प में ,मेष और वानर में ,सिंह और गज में, गाय और व्याघ्र में , मूषक और मार्जार में और महिष और अश्व में भारी शत्रुता होती है अतः इन योनियों के व्यक्तियों में कभी मित्रता नहीं हो सकती .
स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति सात्विक ,राजस या तामसिक कलाए जाते हैं .तीनों का स्वभाव ,भोजन ,चिंतन और उद्देश्य अलग होते हैं . संस्कारों के कारण पिछले जन्मों के लगाव या शत्रुता के कारण भी व्यक्ति चाहे न चाहे संबंधों में उलझ जाता है . ऋण पूरे होने के बाद ऐसे सम्बन्ध हवा के झोके की तरह जीवन से चले जाते हैं ,
प्रत्येक व्यक्ति का एक अपना ऊर्जा मंडल या औरा होता है जो उसके मूल स्वभाव और नैसर्गिक गुणों के अनुसार विकसित होता है .
जिनका औरा जितना मिलता जुलता होता है वह अपने समान गुणों वाले ही अपने से अधिक विस्तृत औरा वाले व्यक्ति के प्रति आकर्षित होता है .
प्रत्येक व्यक्ति का अपना इलेक्ट्रो मेग्नेटिक क्षेत्र होता है जिसे आत्मध्यान से और अधिक विकसित किया जा सकता है .
लेकिन कोई भी आकर्षण सदा नहीं रहता , जैसे दो कण परस्पर आकर्षित होते हैं पर फिर निकट आते ही विकर्षित हो जाते हैं उसी तरह सारे सम्बन्ध समय के साथ बदल जाते हैं . आकर्षण निकट आने पर विकर्षण में परिवर्तित हो जाता है जो संबंधों की सच्चाई है . केवल प्रकाश के श्वेत किरण का दूसरी श्वेत किरण मे मिल कर एक होना ही ऐसी घटना है जिसमें दो अस्तित्व एक हो जाते हैं . कण कण से टकरा कर या तो योगिक बनाते हैं या फिर बिखर जाते हैं ,लहर लहर से मिलती है पर पानी के परमाणु वही रहते हैं .अग्नि में ,प्रकाश में भी रंगों की ,उनकी तरंग गति के कारण प्राकृतिक भिन्नता है . केवल आत्म दर्शी मनुष्य ही पूर्ण शान्ति का अनुभव परस्पर सम्बन्ध में कर पाते हैं .
बिना आध्यात्मिक जागरण के किसी भी सम्बन्ध को मधुर नहीं बनाया जा सकता मोह
- दूसरे
को अपने सुख ke लिए अपने पास रखने की इच्छा.प्रेम में दूसरे का कल्याण प्रमुख होता है अपना स्वार्थ नहीं . प्रेम मोक्ष दाई है मोह दुखकारी क्योंकि उसमें प्रकृति के नियम का उल्लंघन है . हरेक को दूसरे के उत्थान का प्रयास करना चाहिए न की अपनी स्वार्थ सिद्धि का. स्वार्थ और कपट के सम्बन्ध एक दिन विषाक्त हो ही जाते हैं .राग और द्वेष मोह के ही दो पहलू हैं . अपने सुख के लिए किसी को पास रखने की इच्छा राग और दुःख दाई लगने के कारन किसी को अपने से दूर करने की इच्छा द्वेष कहलाती है . प्रेम आत्मा का स्वभाव है जिसका उदय और अंत कभी भी हो सकता है .
ब्रहमांड में आकर्षण के कारण ही प्रत्येक कण किसी दूसरे कण को केंद्र बनाकर उसके परितः परिभ्रमण कर रहा है .
मनुष्य की चेतना का केंद्र उसकी अंतर आत्मा है .जब तक आत्मा शरीर में है शरीर का प्रत्येक कण गतिमान रहता है किन्तु आत्मा के बाहर निकलते ही शरीर का प्रत्येक कण बिखर जाता है और शरीर का विघटन आरम्भ हो जाता है .इसी लिए आत्मध्यान के द्वारा जीवित अवस्था में ही आत्मा का दर्शन किये बिना कोई भी मनुष्य मृत्यु के भय से मुक्त नहीं हो सकता.
वस्तुतः यही मनुष्य जीवन की परम उपलब्धि है .
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