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Saturday, 15 June 2013


पत्नी से श्रापित शिव

एक बार ब्रह्मा जी के पुत्र सनत्कुमार वैकुंठलोक गए . वहां भगवान् विष्णु भोजन कर चुके थे. सनत्कुमार के स्तुति करने पर वह प्रसन्न हो गए और अपना बचा हुआ भोजन सनत्कुमार को दे दिया . सनत्कुमार ने बचा हुआ भोजन कुछ तो खा लिया और कुछ बंधुओं के लिए बचा लिया .सिद्धाश्रम में पहुँच कर उन्होंने बचा हुआ भोजन अपने गुरु शिव को दे दिया . विष्णु का नैवेद्य पाते ही शिव भक्ति के आवेश में आकर सारा भोजन अकेले ही खा गए .वह प्रेम से पागल होकर नाचने लगे .उनके पाँचों मुख बड़े वेग से भगवान् कृष्ण का गुण गान करने लगे,आँखों से आंसू बहने लगे और मदमस्त  होकर वह डमरू बजाने लगे . नाचते हुए वह इतने मग्न हो गए किे उनके हाथ से डमरू गिर गया ;शंख और बाघम्बर भी गिर पड़ा .उसके बाद वह स्वयं भी गिर कर रोते हुए बेहोश होगये .उनका ह्रदय भगवान् के ध्यान में लगा हुआ था .इसी बीच पत्नी पार्वती वहा पहुँच गयीं.भक्ति से शिव को रोता हुआ देख कर, गिरते पड़ते हुए शिव को देख कर उन्होंने सनत्कुमार से इसका कारण पूछा .सनत्कुमार ने सारा समाचार सुना दिया .सारा समाचार सुन कर वह क्रोधित हो गयीं . उनके होठ फड़कने लगे .वह शिव को श्राप देने ही जा रही थी किे शिव ने उठकर उन्हें  समझाने का प्रयास शुरू कर दिया.शिव ने हाथ जोड़ कर उनकी स्तुति की .ब्रह्माण्ड का संहार करने वाले शिव भी पार्वती के क्रोध को देख कर भय से कांपने लगे . पार्वती की आँखें क्रोध से लाल हो रही थी . वह गुस्से से बोली ,-"तुम समस्त जगत के पोषक और रक्षक हो.तुम भक्तों  के लिए मुक्ति दाता  और समस्त संपत्तियों के दाता हो .यदि तुम अनीति करते हो, तो धर्म की रक्षा कौन करेगा ?मैं तुम्हारी सदा से परिपोषनिया,और भक्ति से दासी हूँ .अपने ही कर्म दोष से मैं विष्णु के प्रसाद से वंचित हो गयी.मैंने अति चिर काल तक तप कर के तुम्हे पति रूप में प्राप्त किया है .तब विष्णु के प्रसाद से मैं क्यूँ वंचित की गयी ?महेश्वर ! इस समय जो तुमने मुझे विष्णु का नैवेद्य नहीं दिया है इसलिए मुझ से यह फल ग्रहण करो .आज से जो लोग तुम्हारा नैवेद्य खायेंगे वे भारत में एक जन्म में कुत्ते होंगे ."
 एसा कह कर वह रोने लगीं . पार्वती की जलती दृष्टि शिवजी के  कंठ पर पड़ी और उनका गला नीला हो गया.
तब शिव ने पत्नी को ह्रदय से लगा कर स्तोत्र से उनका क्रोध शांत किया. हांथों से उनके आंसू पोंछे . शांत होने पर पार्वती ने कहा,-"मैं विष्णु के नैवेद्य से वंचित इस देह को त्याग दूंगी ". शिव ने पार्वती की स्तुति के लिए सुन्दर स्तोत्र की रचना कर उन्हें प्रसन्न किया. वह बोले,-" हे महादेवी ! हे जगत की माता ! स्थिर हो .हे सुंदरी ! मेरे समस्त अपराध को क्षमा करो .तुमने अपनी तपस्या से मुझ सेवक को ख़रीदा है .अतः मेरे ऊपर कृपा करो .तुम सनातनी हो .तुम  गुण अतीत  गोलोक नाथ की निर्गुण शक्ति हो, सभी शक्तियों की स्वरूप हो, मेरी सदा की सहचरी हो .उन्ही कृष्ण की कृपा से मेरे वक्ष स्थल पर विराजमान हो .तुम सबको सिद्धि देने वाली ,मुक्ति और भक्ति देने वाली हो. भगवान् हरि  की इच्छा ही ऐसी थी की मैं तुम्हे उनका नैवेद्य देने में असमर्थ हो गया." शिव की स्तुति से प्रसन्न होकर उन्होंने स्नान कर भगवान् विष्णु की पूजा कर उन्हें स्वयम नैवेद्य बना कर अर्पित किया. फिर उनका नैवेद्य खाया और हर्षित होकर शिव के साथ रहने लगी.  

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