गोपी पति
कृष्ण
भागवत पुराण को श्रीकृष्ण का वांग्मय स्वरूप माना जाता है . इस पुराण के अनुसार कृष्ण को पति मान कर देवी उपासना करने वाली गोपियों को श्रीकृष्ण ने रास मंडल में प्रेमिका रूप में स्वीकार करने का वचन दिया और समय आने पर उनको उनकी तपस्या का फल देने के लिए आधी रात को यमुना नदी के किनारे बंसी बजा कर उनका आव्हान किया . उनकी बांसुरी की धुन से मोहित गोपियाँ घर परिवार और सारे सांसारिक काम छोड़ कर उफनती नदी के समान भाव विभोर होकर कृष्ण से मिलने यमुना तट पर पहुँची .उन्हें देख कर कृष्ण बोले ,-"महाभाग्यवती गोपियों !तुम्हारा स्वागत है .बताओ तुम्हे प्रसन्न करने के लिए मैं कौन सा काम करूं
?...रात के समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिए . तुम्हे न देख कर तुम्हारे माँ -बाप,
पति -पुत्र ढूँढ़ रहे होंगे
.उन्हें भय में न डालो ...शीघ्र लौट जाओ .तुम लोग कुलीन स्त्री हो.. जाओ अपने पतियों की सेवा करो .यदि मेरे प्रेम से परवश होकर तुम यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं है ,यह तो तुम्हारे योग्य ही है
क्योंकि जगत के पशु पक्षी तक मुझ से प्रेम करते हैं
.स्त्रियों का परमधर्म यही है की वे पति और उसके बंधुओं की निष्कपट सेवा करें ,संतान का पालन पोषण करें .जिन स्त्रियों को उत्तम लोक की अभिलाषा हो वे
पातकी पति को छोड़ करऔर किसी भी प्रकार के पति का परित्याग न करें
.कुलीन स्त्रियों के लिए जार पुरुष की सेवा निंदनीय है .इससे उसका परलोक बिगड़ता और लोक में अपयश होता है .यह कुकर्म तुच्छ ,क्षणिक तो है ही इसमें वर्त्तमान में भी कष्ट ही कष्ट है .मोक्ष की बात तो कौन करे
,यह तो नरक का हेतु है .गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से ,दर्शन से ,कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है वैसे प्रेम की प्राप्ति पास रहने से नहीं होती .इसलिए तुम अपने घर लौट जाओ ."
गोपियों ने अनेक प्रकार के तर्क देकर और अनुरोध कर श्रीकृष्ण से अनुनय
-विनय की और उन्हें आश्वस्त किया की वे सब तो प्रेम के कारण कृष्ण की दासी मात्र बन चुकीं थीं . उनकी विनय और भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने उनके साथ रासलीला की और उनकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण की . रास के अंत में
श्रीकृष्ण रमण रेती में, जहां गोपियों ने उनके विराजमान होने के लिए अपनी दुपट्टे बिछाए थे वहां विराजमान हुए और गोपियों ने उनसे प्रश्न किया ,-"नटनागर
!कुछ लोग तो ऐसे होतेहैं जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं
और कुछ लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं
.परन्तु कोई कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते
.इन तीनो में तुम्हे कौन अच्छा लगता है ?"
भगवान् ने कहा
,-"मेरी प्रिय सिखियों! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ का है .
लेना देना मात्र है. न तो उनमें सौहार्द्र है और न धर्म .जो प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं जैसे सज्जन और माता
-पिता ,उनका ह्रदय सौहार्द्र से हितेशिता से भरा रहता है और उनके व्यवहार में धर्म एवं सत्य भी है .कुछ लोग प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते .ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं
.एक तो वे जो अपने स्वरूप में ही मस्त रहते हैं ,जिनकी दृष्टि में कभी द्वैत भासता ही नहीं,
दूसरे
वे जिन्हें द्वैत भासता तो है परन्तु जो कृत कृत्य हो चुके हैं जिनका किसी से कोई प्रयोजन ही नहीं है ,तीसरे वे जो जानते ही नहीं हैं की उनको कोई प्रेम करता है और चोथे वे जो जान बूझ कर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरु के समान लोगों से भी द्रोह करते हैं
. उनको उनको
सताना चाहते हैं .मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का व्यवहार वैसा नहीं करता जैसा करना चाहिए .मैं ऐसा इस लिए करता हूँ की उनकी चित्त वृत्ति और भी अधिक मुझ में लगे .जैसे निर्धन को धन मिल जाए और फिर खो जाए तो उसका ह्रदय बार बार खोये हुए धन की चिंता से भर जाता है .वैसे ही मैं मिल मिल कर छिप जाता हूँ .गोपियों
! इसमें संदेह नहीं की तुमने मेर लमेरे लिए लोक मर्यादा और सगे सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है .तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाए ,मुझ में ही लगी रहे -इसीलिये परोक्ष रूप से प्रेम करता हुआ भी मैं छिप गया था .तुम मेरे प्रेम में दोष मत निकलना.तुमने मेरे लिए उन बेड़ियों को तोड़ दिया है जिसे बड़े बड़े योगी
-यति भी नहीं तोड़ पाते .तुम्हारा यह मिलन आत्मिक संयोग निर्मल और निर्दोष है .यदि मैं अमअमर शरीर से अनंत काल तक तुम्हारे प्रेम ,सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता
.मैं जन्म जन्म के लिए तुम्हारा ऋणी हूँ .तुम अपने सौम्य स्वभाव से प्रेम से मुझे उरिन कर सकती हो परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी
हूँ
भागवत और ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों के साथ रचाए गए महारास का विस्तृत वर्णन किया गया है . श्रीकृष्ण के रास से आकृष्ट होकर महादेव शिव भी कृष्ण के रासेश्वर रूप का रसपान करने के लिए लालायित हो गए थे और गोपी वेश में रासमंडल में पहुच गए थे . पर उनकी भावना पुरी तरह गोपी की नहीं हो सकी और वह अपने पुरुष रूप में दिखने के कारन महारास से वंचित रह गए . गोपेश्वर रूप में आज भी महादेव शिव पूजित है .
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