पत्नी - परमेश्वरी
सादर समर्पित पथ भृष्ट पतियों को
मैं हूँ न !
मत हो आहत, मत हो उदास !
तुम अंश मेरे, मैं हूँ अंशी .
विस्मृत कर पल भर को जग को ,
लो सुनो मधुर मेरी वंशी !
इस को रचने की प्रेरणा मुझे भगवान् कृष्ण के ध्यान से ही प्राप्त हुयी क्योंकि मैंने ऐसे अनेक पुरुषों को देखा जो आजीवन भगवान् की मूर्ति की पूजा करते रहे पर भगवद गीता आदी दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन करके भगवान् के सन्देश को समझने का प्रयास उन्होंने नहीं किया
. पारिवारिक और सामाजिक मान्यताओं से ग्रसित रहनेके कारण अपनी अर्धांगिनियों का अपमान और भावनात्मक तिरस्कार करते रहे और फिर वृद्धावस्था में पत्नी की मृत्यु के बाद उन्हें एकांत में पश्चात्ताप के आंसू बहाते देखा और मुझे लगा की जो अहसास उन्हें वृद्धावस्था में हुआ यदि वही उन्हें वैवाहिक जीवन शुरू करने के समय हो गया होता तो उनका अपना जीवन और परिवार कितनी आध्यात्मिक ऊर्जा से भरा होता .इसी कामना ने मुझे यह पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी . धर्मगुरुओं ने भी नारी को नरक का द्वार कह कर पुरुषों को मिथ्या अभिमान से ग्रस्त किया जबकि भगवान् शिव और कृष्ण जैसे योगेश्वरों ने पत्नी को देवी मानकर पूजित किया और अपनी धार्मिक- आध्यात्मिक सुरक्षा के लिए उन्हें कवच की तरह धारण किया है. पति पत्नी का सम्बन्ध पूर्णतया एक आध्यात्मिक घटना है क्योंकि बिना दो के सृष्टि का न सृजन संभव है न पालन. बिना पत्नी को देवी मान कर उसे पूजित किये मोक्ष संभव नहीं है. रामकृष्ण परम हंस जैसे आध्यात्मिक गुरुओं ने इसका उदाहरण प्रस्तुत किया .पति को परमेश्वर कहलाने का प्रचार और पत्नी को पति की दासी मानने का कुप्रचार जिन पुरुषों ने किया उन्हें चेतन प्रकृति कभी क्षमा नहीं कर सकती .मैंने ऐसी पत्नियों को भी देखा जिन्होंने आजीवन पति को परमेश्वर मान कर उनकी निशब्द, निस्वार्थ सेवा की पर फिर भी अनेक शारीरिक रोग और मानसिक कष्ट सहे. ना तो उनकी आध्यात्मिक उन्नति हुयी और न ही वे मोक्ष के निकट पहुँच पायीं, जबकि ऐसी पत्नियाँ भी देखीं जिन्होंने सात्विक जीवन जीने के लिए पति और ससुराल के रिश्तों से तिरस्कार सहा, संघर्ष किया और आध्यात्मिक ऊंचाइयों को छुआ और मुझे लगा की अहंकारी पतियों की निशब्द सेवा और अन्धानुकरण से किसी स्त्री का आध्यात्मिक उत्थान संभव नहीं है .
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मैंने शिक्षित और संपन्न
, आर्थिक रूप से स्वावलंबी और समाज में प्रतिष्ठित महिलाओं को भी पति द्वारा आहत और तिरस्कृत देखा .ऐसा लगा के पत्नी का अपमान और तिरस्कार पतियों का जन्म सिद्ध अधिकार या कर्त्तव्य है जो उन्होंने पिता से विरासत में पाया है .
अपने को स्वतन्त्र और स्वामी मानने वाले पतियों को प्रेम विवाह कर के सुन्दर और समर्पित पत्नियों के साथ रहते हुए भी दाम्पत्य के बाहर अन्य स्त्रियों के साथ आनंद की खोज में भटकते और उलझते देखा और मुझे केवल उनकी भ्रामक सोच पर दया आयी की वह नहीं जानते की ईश्वर और प्रकृति की दृष्टि में वह कितने बड़े अपराधी हैं . समय आने पर उन्हें अपने इन कुकृत्यों का परिणाम संतान से अपमान या मानसिक और शारीरिक रोग के रूप में अवश्य मिला. मुझे लगा के यदि बचपन से ही स्त्री पुरुष को प्राकृतिक विधान का ज्ञान हो जाए तो संभवतया सभी के जीवन से क्लेश,
द्वेष
और दुविधा को मिटाया जा सकता है .
भगवान् श्रीकृष्ण ने महाभारत में स्पष्ट कहा है की नीच वर्ण का पुरुष हो या स्त्री ,यदि उसे धर्म सम्पादन करने की इच्छा हो तो योग मार्ग का सेवन करने से उसको परम गति की प्राप्ति होती है . इस लिए योग साधना का अधिकारऔर कर्त्तव्य पति और पत्नी दोनों को है .वस्तुतः राधाजी से लेकर पार्वती जी तक सब ने योग साधना से ही आध्यात्मिक शक्ति और तेज प्राप्त किया है .आजके भटकते युवा वर्ग को अपनी आध्यात्मिक चेतना को विकसित करने के लिए सही मार्ग दर्शन और योग अभ्यास की महती आवश्यकता है क्योंकि छोटे से जीवन में बड़ी आध्यात्मिक उन्नति केवल ध्यान योग से ही संभव है . गृहस्थ आश्रम में ही व्यक्ति को धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष चारों की प्राप्ति हो सकती है . यज्ञ करने से देवता ,श्राद्ध करने से पितृ ,शास्त्र के अभ्यास से ऋषि और संतान उत्पन्न करने से प्रजापति प्रसन्न होते हैं . भगवान् श्रीकृष्ण ने महाभारत में युद्धिष्ठिर से कहा है की “हजारों योनियों में भटकने के बाद भी मनुष्य योनी का मिलना कठिन होता है. ऐसे दुर्लभ मनुष्य शरीर को पाकर भी जो धर्म का अनुष्ठान नहीं करता वह महान लाभ से वंचित हो जाता है .जो दरिद्र ,कुरूप,रोगी और मूर्ख हैं उन्होंने पूर्व जन्म में धर्म का अनुष्ठान नहीं किया है और जो दीर्घ जीवी ,वीर ,ग्यानी ,निरोग और रूपवान हैं उन्होंने पूर्व जन्म में अवश्य ही धर्म का अनुष्ठान किया है .जो अधर्म करते हैं उन्हें पशु पक्षी की योनी में गिरना पड़ता है .मेरे भक्तों का नाश नहीं होता ,वे निष्पाप होते हैं .उन्ही का जन्म सफल है .जो मनुष्य मुझे जगत की उत्पत्ति ,स्थिति और संहार का कारण समझ कर मेरी शरण लेता है उस पर कृपा कर के मैं उसे संसार बंधन से मुक्त कर देता हूँ”.वस्तुतः अनेक महान पुरुष पात्रों में एक श्रीकृष्ण ही हैं जिनके उपदेश भगवद गीता को योगियों ने अभ्यास कर योग की परम सिद्धियों को पाया है . कृष्ण अनुभव सिद्ध योगेश्वर हैं जो हर रूप में अनेकों के उपास्य हैं .उनके चरित्र की हर घटना मनुष्य को सहज रूप से जीवन की जटिल परिस्थितियों को सुलझाने का मार्ग दर्शन देती है. पुराण साक्षी हैं की उन्होंने अनेकों माताओं ,अनेकों पत्नियों , पुत्रियों , पुत्रवधुयों और अनेकों महिला मित्रों के साथ सम्बन्ध निभाये और स्त्री के सभी रूपों के साथ मधुर भावनात्मक सम्बन्ध बनाए रखने का एक अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया .
सास और बहु के संबंधों की उलझन विश्व व्यापी समस्या है. माता और पत्नी के अधिकार और आशाओं के मध्य अधिकतर पुरुष त्रिशंकु की तरह पिसते रहते हैं. मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो इसका मूल कारण सास का अपने पति के साथ सामंजस्य न होना और उससे संतुष्ट न होना है. जो पति अपनी पत्नि को सम्मान और भावनात्मक या आर्थिक सुरक्षा नहीं दे पाते वही माएं अपनी भावनात्मक सुरक्षा पति के स्थान पर पुत्र से पूरी करने का प्रयास करती हैं और बेटे -बहु के दाम्पत्य जीवन को बिखेरने का प्रयास करती हैं. इस तरह पुत्र की भावनात्मक और आर्थिक छीछा लेदर के लिए उसका अहंकारी या अक्षम पिता ही ज़िम्मेदार होता है . मनुष्य जीवन कदम कदम पर नयी समस्याओं से भरा है . यदि कहीं शान्ति और सुरक्षा की अनुभूति
मिलती है तो वह जगत का संचालन करने वाली परम सत्ता के सामने अपने व्यक्तिगत अहंकार का समर्पण कर के ही मिलती है. उस सत्ता को व्यक्ति अपने धर्म,देश, जाति या भाषा के अनुसार चाहे किसी भी नाम से पुकारे
.भगवान् श्रीकृष्ण के पांच हज़ार वर्ष पहले देह त्याग के बाद भी आज तक उनके अनंत उपासक विश्व में हैं जिन्हें अनेक दिव्य अनुभूति होती रही हैं .इसीलिये उन्हें पूजनीय माना जाता है . उनके सन्देश को उनके अंशों तक पहुंचाने का क्षुद्र प्रयास है यह कृति .
श्री कृष्ण अर्पण !
may all men be enlightend and gentle to their spouses..may all women bless them..
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