भटकते नारद
नारद ने एक बार भगवान् से प्रश्न किया
,-हे भक्तवत्सल प्रभु विद्वान् लोग पहले राधा का नाम ले कर फिर कृष्ण का नाम क्यूँ लेते हैं
?इसका क्या कारण है प्रभु? भगवान् ने कहा ,-"इसके तीन कारण हैं . सुनो. प्रकृति जगत की माता है और पुरुष जगत का पिता . तीनो लोको में माता का गौरव पिता से सौ गुना अधिक है. इस लिए राधा कृष्ण और गौरीश कहा जाता है ."रा " शब्द के उच्चारण करते ही माधव उठ कर तैयार हो जाते हैं और "धा " शब्द कहते ही घबरा कर पीछे पीछे दौड़ने लगते हैं .हे मुनि
! पहले पुरुष का नाम लेकर जो बाद में प्रकृति
का नाम लेते हैं, वह मात्र घाती( माता की हत्या करने वाला) कहलाते हैं.
ब्रह्मा जी अपने पुत्र नारद को विवाह के लिए प्रेरित कर रहे थे किन्तु योगी नारद गृहस्थ धर्म से परे रहना चाहते थे. नारद ने वेदों का ज्ञान उन से प्राप्त किया और योग विद्या शिवजी से सीखी
. फिर भी उनकी आत्मा में एक व्यग्रता थी जिसकी शांति के लिए वह शिवजी के पास गए और बोले ,-"प्रकृति ब्रह्म से पृथक है या ब्रह्म स्वरूपिणी ?सृष्टि में किसकी प्रधानता है ? दोनों में कौन श्रेष्ठ है ?'
शिवजी ने कहा ,-" एक बार वैकुंठलोक में मेरे ,ब्रह्मा के और धर्म के पूछने पर भगवान् विष्णु ने जो कुछ कहा था वही तुम्हे बता रहा हूँ , सुनो ! -"सनातन परम ब्रह्म परमात्मस्वरूप सभी देहों में स्थित ,उनके कर्मों का साक्षी है. जीव परमात्मा का प्रतिबिम्ब है .महा प्रलय होने पर संसार के नष्ट होने पर एक वही परम ब्रह्म शेष रह जाता है. हम सब और सारा चर- अचर जगत उसी में विलीन हो जाता है .वह परम ब्रह्म ज्योति स्वरूप है . योगी उसे परम ब्रह्म कहते हैं. वह प्रकृति से परे है और प्रलय के समय प्रकृति उसी में लीन हो जाती है .जैस अग्नि में उसकी दाहिका शक्ति ,सूर्य में प्रभा ,दूध में धवलता है उसी तरह निर्गुण ब्रह्म में निर्गुण प्रकृति सर्वदा स्थित है. जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी से ही घडा बना सकता है उसी तरह ब्रह्म भी प्रकृति द्वारा ही सृष्टि करने में समर्थ होता है. परम ब्रह्म और प्रकृति नित्य हैं क्योंकि दोनों की प्रधानता समान है. कुछ लोग ब्रह्म को प्रकृति और पुरुष दोनों मानते है और कुछ प्रकृति को ब्रह्म से परे मानते हैं.ब्रह्म सभी का आत्मा है और प्रकृति उस ब्रह्म की शक्ति है .क्योंकि प्रक्रति के लक्षण में ब्रह्म शक्तिमान है ,ऐसा कहा गया है. ब्रह्म के तेज का योगी जन ध्यान करते हैं .किन्तु सूक्ष्म बुद्धि वाले वैष्णव लोग ऐसा नहीं मानते हैं.बिना पुरुष के केवल उसके तेज का ध्यान करना किसे आश्चर्य में नहीं डालता ?पृथ्वी पर बिना कारण के कार्य होना कहाँ संभव है ?इसीलिये वैष्णव लोग परमात्मा के साकार रूप का ध्यान करते हैं. करोड़ों सूर्य के प्रकाश के समान जो तेज पुंज है,उसके अन्दर नित्य धाम छिपा है जिसका नाम गोलोक है . वहां परमात्मा श्रीकृष्ण जो सब के आत्मा
,निर्विकार ,प्रकृति से परे हैं, गोपवेश में अपनी अर्धांगिनी राधाजी के साथ अनेकों पार्षदों ,गोपों व गोपियों के साथ रहते हैं . वही एक मात्र भगवान् हैं .वह श्रीमान राधिकेश्वर सब के अंतर आत्मा,
सब जगह प्रत्यक्ष होने योग्य और सर्वगामी हैं.
कृष्ण शब्द में कृष शब्द का अर्थ समस्त और 'न ' का अर्थ आत्मा है .इसीलिये वह सर्व आत्मा परम ब्रह्म कृष्ण नाम से कहे जाते हैं. कृष का अर्थ आड़े
और न
का अर्थ आत्मा होने
कइ कारण वे सबके आदि पुरुष हैं ." शिवजी से यह सुन कर नारद जी ने उनकी स्त्रोत्र के द्वारा स्तुति की और प्रसन्न हो कर शिवजी ने उन्हें ज्ञान प्रदान किया.
नारदजी ज्ञान का चिंतन करते हुए बदरिका आश्रम में रहने वाले नारायण ऋषि के पास पहुंचे. हिंसा और भय से रहित वह आश्रम स्वर्ग से भी अधिक मनोहर था. गन्धर्वों के मुख से श्रीकृष्ण सम्बन्धी नृत्य
-गान देखते हुए ऋषि नारायण भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान कर रहे थे .नारद ने उन्हें प्रणाम किया और ऋषि ने उनका आलिंगन कर समीप बिठाया .विश्राम पाकर नारद जी ने कहा,-
विभो !पिताजी जी से वेदों का अध्ययन और योगीन्द्र शंकर से ज्ञान और मन्त्र प्राप्त कर लेने पर भी मेरे मन को तृप्ति नहीं हो रही है क्योंकि मन अत्यन दुर्निवार और चंचल है . मन से प्रेरित होकर मैंने आपके चरण कमल का दर्शन किया है .अब मुझे कुछ विशेष ज्ञान पाने की इच्छा है जिसमे जन्म ,मृत्यु वृद्धावस्था के विनाशक भगवान् श्रीकृष्ण का वर्णन हो. सभी देव और मुनि किसका चिंतन करते हैं
?सृष्टि किससे उत्पन्न होकर किस में विलीन हो जाती है ?कौन सबका ईश्वर और सब कारणों का कारण है ?कृपया विचार कर मुझे बताने की कृपा करें
."श्रीनारायण बोले,-"
सभी देवी देवता जिन भगवान् के चरण कमलों का चिंतन करते हैं, उन का चिंतन करना सबका कर्त्तव्य है .सबका भरण
-पोषण करने वाले उन आदिदेव के रोम कूपों में अनेकों विश्व निहित हैं.वह परम पुरुष रासेश्वर श्रीकृष्ण हैं
.तुम उन का ही चिंतन करो. वही परमेश्वर ब्रह्मा की रचना करते हैं.ब्रह्मा
प्रकृति की रचना करके सृष्टि रचते हैं. ब्रह्मस्वरूप प्रकृति ब्रह्म से भिन्न नहीं है. उसी प्रकृति की कला से संसार की सारी स्त्रियाँ प्रकट हुईं हैं
.प्रकृति ही माया है .उससे सब मोहित हैं .वह सनातानी परमात्मा की परमा शक्ति है. जिससे वह शक्तिमान कहे जाते हैं और उस माया के बिना वह सृष्टि करने में असमर्थ रहते है .वत्स! तुम पिता की आज्ञा का पालन कर विवाह अवश्य करों.क्योंकि जो अपनी पत्नी का वस्त्र, आभूषण और चन्दन द्वारा सम्मान करता है उस पर वह प्रकृति उसी तरह परम प्रसन्न होती है जैसे ब्राह्मण का पूजन करने पर भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं .प्रत्येक विश्व में वह माया स्त्री के रूप में विद्यमान है .इसलिए स्त्री का अपमान करने से वह अपमानित होती है .पति -पुत्र वाली स्त्री की जिसने पूजा की उसने मानो सर्व मंगला प्रकृति की पूजा की."
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