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Saturday 15 June 2013


भयभीत वर वर्ग  
पुराण साक्षी हैं की शिव जैसे ज्ञानी, योगी और नारद जैसे वैष्णव भक्त  भी विवाह के सम्बन्ध से भयभीत थे . दोनों ही विवाह नहीं करना चाहते थे और उनके अपने तर्क वितर्क थे. किन्तु योगेश्वर कृष्ण ने उन्हें विवाह करके जीवन में पूर्णता प्राप्त करने का आदेश दिया . गोलोक में देवी देवताओं की सृष्टि करने के पश्चात श्रीकृष्ण ने सब को उनकी अर्धांगिनी, मंत्र और वाहन प्रदान किये . शिव जी को उन्होंने सिंह वाहिनी दुर्गा से विवाह करने का आदेश दिया . सर्वाधीश्वर श्रीकृष्ण ने योगियों के गुरु शंकर को बुला कर अत्यंत प्रेम से कहा,-"आप इस सिंह वाहिनी को ग्रहण कीजिए ." उनकी यह बात सुन कर शिवजी हँसे और डरते हुए विनीत भाव से बोले ,-"साधारण पुरुष की भाँति मैं भी इस समय इस प्रकृति को ग्रहण करने में असमर्थ हूँ .क्योंकि यह आपकी भक्ति को दूर करने वाली ,सेवा मार्ग की विरोधिनी ,तत्वज्ञान को आछन्न करने वाली ,योग रूपी द्वार का किवाड़,मुक्ति की इच्छा को ध्वंस करने वाली ,कामुकी तथा काम (भोग ) को बढाने वाली है .यह तपस्या का लोप करने वाली,महा मोह की टोकरी ,संसार रूपी भयंकर कारागार की सुदृढ़ बेढ़ी, निरंतर दुर्बुद्धि की जननी, सद बुद्धि का नाश करने वाली, भोग इच्छा को बढाने वाली है .नाथ ! मुझे गृहणी की इच्छा नहीं है .मैं जो मन इच्छित वरदान चाहता हूँ उसे देने की कृपा करें .क्योंकि जिसे जो वस्तु  अच्छी लगती है ईश्वर उसे वही प्रदान करता है .आपकी भक्ति के विषय में मेरी लालसा दिन रात बढ़ती रहती है .आपके चरण की सेवा और नाम जपने से मुझे कभी तृप्ति नहीं होती है .शयन करते और जागते हुए हर समय मैं अपने पाँचों मुखों से आपके नाम और गुण का गान गाते हुए घूमता हूँ .हजारों कल्पों तक मैं आपके रूप के ध्यान में तल्लीन रहता हूँ ,इसलिए विषय भोग की इच्छा नहीं है .योग और तप में मेरा मन लगा रहता है. आपकी सेवा, पूजा ,वन्दना और नाम कीर्तन में मेरा मन सदा प्रसन्न रहता है .इनसे विरत होने पर मन तड़पने लगता है .वरों के ईश्वर !नाम -गुण स्मरण ,कीर्तन ,श्रवण ,जप, रूप- ध्यान,चरण सेवा ,वन्दना ,आत्म समर्पण और नैवेद्य भोजन यह अपनी नौ प्रकार की भक्ति  मुझे प्रदान करें .छः प्रकार की मुक्ति -सार्ष्टि (ईश्वर के समान सृष्टि करने की शक्ति ),सालोक्य ( ईश्वर के समान लोक में रहना ),सामीप्य (ईश्वर के समीप रहना ),सारूप्य (ईश्वर के समान रूप पाना ),साम्य (ईश्वर से समता पाना ),और लीन होना , अणिमा , लघिमा ,प्राप्ति ,प्राकाम्य ,महिमा ,ईशित्व ,वशित्व ,सर्व कामावसायिता,सर्वज्ञता ,दूर श्रवण , परकाया  प्रवेश ,वाक् सिद्धि ,कल्प वृक्षत्व ,सृष्टि और संहार की क्षमता ,अमरता और सर्वश्रष्ठ होना ये अट्ठारह सिद्धियाँ ,योग ,तप,दान ,व्रत ,यश ,कीर्ति, सत्य वाणी,उपवास ,सर्व तीर्थ स्नान ,देव अर्चना ,देव पूजा ,दर्शन ,सात दीपों की सात प्रदक्षिणा ,सारे समुद्रों में स्नान, सारे स्वर्ग के दर्शन ,ब्रह्म पद ,रुद्रपद ,विष्णुपद ,परम पद और सभी पदार्थ आपकी भक्ति के सोलहवें हिस्से के बराबार भी नहीं है ." योगियों के गुरु महादेव की बातें सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण हँसते हुए बोले ,-"निखिल ज्ञानियों में श्रेष्ठ सर्वेश्वर शिव ! तुम सौ करोड़ कल्पों तक मेरी सेवा करो. तुम तपस्वियों ,सिद्धों ,योगियों, ज्ञानियों, वैष्णवों और देवों में सर्वश्रेष्ठ  हो. अमर होकर मृत्यु के विजेता बनो. सारी सिद्धियों और वेदों का ज्ञान प्राप्त करो .वत्स ! उससे असंख्य ब्रह्माओं का पतन देखते रहोगे .तुम मेरे समान ज्ञान ,तेज ,अवस्था ,पराक्रम ,यश प्राप्त करो .क्योंकि तुम मेरे प्राण से भी अधिक प्रिय हो. तुम से बढ़ कर मेरा कोई भक्त नहीं है .तुम मेरे आत्मा से भी बढ़कर हो .जो अज्ञानी मनुष्य तुम्हारी निंदा करते हैं, वे नरक में रहते हैं .शिव ! सौ करोड़ कल्पों  के  बाद तुम शिवा को ग्रहण करोगे.अतः मेरे इन वचनों का पालन करो .मैं तुम्हारी इस समय की बात मानने को तैयार नहीं हूँ .मेरी बात और अपनी बात का पालन उस समय करोगे जब प्रकृति को अपनाकर दिव्य सहस्त्र वर्षों तक महान सुख और श्रृंगार रस का आस्वादन करोगे ,इसमें संशय नहीं .तुम केवल तपस्वी ही नहीं, मेरे समान ईश्वर भी हो .जो स्वेच्छामय  ईश्वर है वह समय पर गृहस्थ,तपस्वी और योगी होता है .शिव ! स्त्री के प्राप्त होने पर जो दुःख आपने बताया है उसमें निन्दित स्त्रियाँ ही अपने पति को दुःख देती हैं,   की पतिव्रता .जो प्रतिष्ठित कुल में उत्पन्न हुईं हैं वह पुत्र की भाँती स्नेह से पति का पालन करती है. सतकुल में उत्पन्न स्त्रियों का पति ही बंधू , भर्त्ता,और देवता है चाहे वह पतित ,अपतित ,दीन  हीन और ऐश्वर्यशाली क्यों हो .असत्कुल में उत्पन्न स्त्रियाँ परभोग्या होती हैं. वे ही सदा पति की निंदा करती हैं.जो सती हम दोनों से बढ़ कर पति को देखती है, वह गोलोक में अपने पति सहित सुख प्राप्त करती है.यह  वैष्णवी प्रकृति शिवप्रिया होकर तुम्हारे लिए कल्याण मयी होगी .मेरी आज्ञा  से तुम लोक कल्याण के लिए उसे पत्नी रूप में ग्रहण करो .तीर्थों की मिट्टियों से प्रकृति के साथ योनियुक्त तुम्हारे लिंग का निर्माण कर जो जितेन्द्रिय पुरुष  एक हज़ार लिंग की पञ्च उपचार से पूजन करेगा  वह गोलोक में मेरे साथ निवास करेगा.शिवलिंग की पूजा होने से अतीर्थ भी तीर्थ होजाता है .महादेव 'जपने वाले के पीछे मैं तुम्हारा नाम सुनाने के लिए जाता हूँ .शिव -शिव जपते हुए जो प्राण त्याग करता है, वह मोक्ष पाता है ." फिर भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें मंत्र और मृत्युंजय तत्वज्ञान दिया और सिंहवाहिनी प्रकृति से बोले ,-"वत्से !इस समय तुम मेरे साथ गोलोक में रहो.समय आने पर तुम कल्याणकारी शिव की सेवा करोगी .देवताओं की तेज राशि  से प्रकट होकर तुम दैत्यों का वध कर के सब की पूजनीय होगी .किसी विशेष कल्प में सत्य युग में तुम दक्ष की कन्या हो कर शिव की भार्या होगी .दक्ष के यज्ञ में पति की निंदा सुनकर तुम शरीर त्याग कर के हिमालय की पत्नी मेनका की पार्वती नामक पुत्री होगी .शिव के साथ एक हज़ार दिव्य वर्षों तक विहार कर के पति के साथ पूर्ण अभिन्नता प्राप्त  करोगी .सारे लोकों में शरद काल में तुम्हारी पूजा होगी .अनेक स्थानों में तुम्हारे अनेक नाम होंगे और शिव द्वारा रचे अनेक तंत्रों से तुम्हारी पूजा की जायेगी .तुम्हारी सेवा करने वाले धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष प्राप्त करेंगे ."
पुराण साक्षी हैं की श्रीकृष्ण के आदेश के अनुसार ही  समय आने पर देवताओं ने अपने कार्य की सिद्धि के लिए दक्ष से प्रार्थना की की वह देवी दुर्गा की उपासना कर उन्हें पुत्री के रूप में प्राप्त करें जो आगे चल कर भगवान् शिव को पति रूप में पाने के लिए तप कर उनकी अर्धांगिनी बनेंगी. ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष ने देवी दुर्गा की उपासना कर उन्हें सती नाम की बेटी के रूप में पाया. वही आगे चल कर महादेव शिव की अर्धांगिनी बनी.
त्रेता युग में भगवान् राम जब अपनी पत्नी सीता की खोज में एक साधारण पुरुष की तरह शोक मग्न होकर वन में भटक  रहे थे तब मार्ग में उन्हें भगवान् शिव और देवी सती के दर्शन हुए. राजकुमार राम ने दोनो को माता पिता की तरह सम्मानित कर प्रणाम किया . यह्देख कर देवी सती के मन में शंका जगी की यह कैसे अवतार हैं जो साधारण  पुरुष की तरह वन में अपनी पत्नी को खोजने के लिए  भटक रहे हैं? उनकी परीक्षा लेने के लिए सती ने सीता का रूप धारण किया और भगवान् राम के सामने प्रकट हो गयीं . किन्तु राजकुमार राम ने उन्हें माता कह कर प्रणाम किया और पूछा की वह किस कारण से बिना महेश्वर के अकेले ही वन में घूम रहीं थीं . उनके यह वचन सुन कर देवी सती को समझ में गया के वह साधारण पुरुष  होकर अवतारिक विष्णु ही थे . जब देवी सती आगे बड़ी तो उन्हें मार्ग में हर तरफ राम ,लक्ष्मण और सीता के दर्शन होने लगे जिस से वह और भी भयभीत हो गयीं  और भगवान् विष्णु को मन ही मन प्रणाम करती हुयी महेश्वर के निकट पहुँची जो बिना उनके कहे सारी सच्चाई जान चुके थे . देवी सती ने देखा की भगवान् शिव ने उनका आसन अपने वाम अंग से हटा कर सामने रख दिया था और उन्हें सीता का रूप धारण करने के कारण  उनके साथ माता की तरह व्यवहार करने लगे थे . अपनी इस भूल पर देवी सती को बहुत पश्चात्ताप हुआ पर वह महेश्वर के दृढ संकल्प के आगे विवश रहीं. समय आने पर जब उन्होंने सारे ऋषियों और देवी दवताओं को आकाश मार्ग  से अपने पिता दक्ष के घर यग्य उत्सवे मेंजाते देखा तो वह भी वहां जाने की अभिलाषा करने लगीं . क्योंकि उनके पिता दक्ष शिव को अवधूत होने के कारण अपने योग्य नहीं मानते थे अतः उन्हें अपमानित करने के लिए ही उन्होंने शिव और सती को अपने घर आने का आमंत्रण नहीं दिया . शिवजी नहीं चाहते थे की सती बिना बुलाये अपने पिता के घर जाएँ पर सती की जिद के आगे वह झुक गए और अपने कुछ सेवकों के साथ सती को पिता के घर भेज दिया . यज्ञ में शिवजी के लिए आसन और भाग  देख कर सती के क्रोध की सीमा रही और उन्होंने वहीं पिता को अपमानित कर योग द्वारा अपना शरीर त्याग दिया . दक्ष का यज्ञ शुरू होने से पहले ही यह दुर्घटना वहां हो गयी . भगवान् शिव ने सती के देह त्याग की बात जान कर अपनी जटाओं से भद्रकाली और वीरभद्र को प्रकट किया जिन्होंने अपने अन्य योद्धाओं  के साथ यग्य को नष्ट कर दिया. भगवान् विष्णु तक शिव के महा पराक्रमी योद्धाओं  से युद्ध में पराजित हो गए. युद्ध का अंत दक्ष के सर कटने के साथ हुया . पराजित दक्ष ने घुटने टेक कर भगवान् शिव से क्षमा माँगी . दयालु  शिव जी अपनी पत्नी के देहावसान के दुःख को भूल गए और घमंडी दक्ष को लज्जित देख उसे क्षमा कर दिया . दक्ष के सर पर बकरे का सर लगा कर भगवान् शिव ने दक्ष को पुनः जीवित किया .सती के देह त्याग से दुखी महादेव उनकी मृत देह को लेकर विश्व भर में उन्मत्त की तरह भटकने लगे. तब भगवान् विष्णु  ने उनका मोह भंग करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती की देह के इक्यावन टुकडे कर दिए  जिनके गिरने पर उन स्थानों पर शक्ती पीठ  बन गए . भगवान्  शिव के आंसू जहां  गिरे वहां उन आंसुओं से रुद्राक्ष के जंगल खड़े हो गए .
भगवान् विष्णु ने अक्षय वटवृक्ष के नीचे दुःख से कातर और विक्षिप्त अवस्था में लेटे  पति भगवान् शिव  को जो सती के विरह में अपना  तांत्रिक ,वैज्ञानिक , शास्त्रीय संगीत आदी लौकिक  और आध्यात्मिक ज्ञान भुला चुके थे --------------------------------------
ऐसे आसक्त और विषादग्रस्त महायोगी  महादेव को आध्यात्मिक ज्ञान देकर देवी दुर्गा की उपासना करने का सुझाव दिया. भगवान् शिव ने संयत होकर देवी दुर्गा की उपासना की और प्रसन्न होकर दुर्गा जी ने उन्हें आश्वासन दिया की समय आने पर वह पुनः उनकी पत्नी बनेंगी .
काल चक्र के अनुसार निर्धारित समय पर देवी दुर्गा ने हिमवान और मैना की पुत्री के रूप में जन्म लिया  और शिव की पत्नी बनीं .  भगवान् शिव और देवी पार्वती भूलोक , भुवर्लोक    और स्वर्ग तीनों लोकों के  प्राणियों के लिए आदर्श माता पिता हैं जिनकी उपासना ने अगणित लोगों को आस्था के मार्ग पर चलने के लिए दिशा दी हैं .भगवान् श्री कृष्ण के आदेश अनुसार वह लिंग और योनी के रूप में मनुष्यों और देवताओं से पूजित और सम्मानित हैं . अनेकों शास्त्रों में शिवजी ने देवी पार्वती से कहा है की वह उनके बिना शव मात्र हैं और उनके संयोग से हीशव से शिवबनते हैं . देवी पार्वती को वह बार बार अपना ही रूप घोषित करते हैं और अर्धनारीश्वर के रूप में पूजित हैं .इस तरह वह महादेव जो हरी की भक्त को सर्वोपरि मान कर केवल भजन में ही लगे रहना चाहते थे, भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश के अनुसार एक आदर्श और पूजनीय पति बने .
 नारद का जन्म ब्रह्मा के पुत्र के रूप में हुआ था . जब ब्रह्मा ने उन्हें विवाह कर सृष्टि विस्तार का आदेश दिया तो नारद का भी गला सूख गया क्यूंकि वह भी विवाह बंधन में नहीं बंधना चाहते थे . नारद बोले ,-"पिताजी सर्व प्रथम आप हमारे बड़े भाई सनक ,सनंदन ,सनातन और सनत्कुमार को यहाँ लाईये और उनका विवाह कीजिए .फिर हमें आज्ञा  दीजिये .जब पिता के द्वारा वे सब तप के लिए नियुक्त किये गए तो हमें संसार में क्यों फंसाया जा रहा है ?खेद की बात है की प्रभु की बुद्धि विपरीत भाव को प्राप्त हो रही है .किसी पुत्र को तो अमृत से भी उत्तम तप प्रदान किया जा रहा है और किसी को विष से भी अधिक विषम विषय दिया जा रहा है .अत्यंत निम्न कोटि के घोर भव सागर में जो गिर जाएगा उसका कोटि कल्प में भी उद्धार होने का उपाए नहीं है .सभी प्राणियों के निस्तार करने का कारण एक मात्र भगवान् पुरुषोत्तम ही हैं .भला ऐसे परमेश्वर को छोड़ कर कौन मूढ़ जन अपने मन को विनाश  जनक विषय में लगाएगा ? कौन मूढ़ प्राणी अमृत से भी अधिक मधुर भगवान् कृष्ण को छोड़ कर विषय नामक विष का भक्षण करेगा ?जिस प्रकार दीपक की शिखा का अग्र भाग अत्यंत मनोहर होते हुए भी पतंगों के लिए मृत्यु का कारण है उसी प्रकार यह विषय भी स्वप्न की भाँती नश्वर ,तुच्छ ,और विनाशकारी हैं .जिस प्रकार बांस में गुंथा हुआ मांस मछलियों को दुर्भाग्य के कारण सुखद लगता है उसी प्रकार विषयी पुरुषों को विषय में सुख की प्रतीति होती है किन्तु वास्तव में वह मृत्यु का कारण है.प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा की तरह दमकते हुए नारद ब्रहमा के सामने ऐसा कह कर चुप हो गए और उन्हें प्रणाम कर के चुपचाप खड़े रहे . इस पर ब्रह्मा ने अत्यंत कुपित हो कर नारद को श्राप दे दिया .वह क्रोध से काँप रहे थे ,मुख लाल हो गया था और ओठ फड़क रहे थे .ब्रह्मा बोले ,-"नारद ! मेरे श्राप से तुम्हारा ज्ञान लुप्त हो जाएगा .तुम कामिनियों के क्रीडा मृग,स्त्री लोभी और लम्पट बन जाओगे .तुम स्थिर योवन वाली अत्यंत सुन्दरी पचास कामिनियों के प्राण प्रिय पति बनोगे .तुम श्रृंगार शास्त्र के वेत्ता ,अनेक प्रकार के श्रृंगारों में निपुण व्यक्तियों के गुरुओं  के गुरु, गन्धर्वों में श्रेष्ठ मधुर स्वर के गायक ,तथा वीणा बजाने में निपुण होगे .तुम्हारा यौवन सदा स्थिर रहेगा. विद्वान, मधुर भाषी,शांत, सुशील , सुन्दर और सुबुद्धि होगे और उपबर्हण नाम से प्रसिद्द होगे. एक लाख साल तक उन कामिनियों के साथ विहार करने के बाद मेरे श्राप से दासी के पुत्र होगे .वत्स ! उसके बाद वैष्णव महात्माओं के संसर्ग से और उनके प्रसाद से तुम पुनः भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करके मेरे पुत्र के रूप में प्रतिष्ठित होगे .उस समय मैं तुम्हे दिव्य ज्ञान प्रदान करूँगा .किन्तु इस समय मेरे पुत्र होकर भी तुम नष्ट हो जाओ और नीचे गिरो ." इस प्रकार कह कर ब्रह्माजी चुप हो गए .नारद जी रोने लगे और हाथ जोड़ कर बोले ,-"हे तात !हे जगद्गुरो !आप क्रोध को शांत करें .आप सृष्टा हैं .तपस्वियों के स्वामी हैं .मुझ पर आपका यह क्रोध अकारण हुआ है .विद्वान पुरुष दुराचारी पुत्र को श्राप देते हैं, उसका त्याग करते हैं. आप अपने तपस्वी पुत्र को श्राप देना कैसे उचित मानते हैं? जिन जिन योनियों में मेरा जन्म हो ,भगवान् की भक्ति  मुझे कभी छोड़े,यह वरदान भी मुझे देने की कृपा करें. क्योंकि कोई जगत के रचयिता का ही पुत्र क्यों हो यदि उसमें भगवद चरणों के प्रति भक्ति नहीं है तो वह सूअर से भी अधम है .पूर्व जन्म का स्मरण और भगवद भक्ति होने से यदि सूअर के शरीर में भी जन्म मिले तो वह अपने कर्म से गोलोक में  स्थान पा लेता है .क्योंकि गोविन्द के चरण की भक्ति करने वाले वैष्णवों के स्पर्श से ही यह वसुंधरा  पृथ्वी पवित्र होती है .तीर्थ समूह पापियों के पाप से अपने को शुद्ध करने के लिए वैष्णवों का स्पर्श चाहते हैं .भारत में भगवान् के मन्त्र के उपदेश मात्र से मनुष्य अपने करोड़ों पूर्वजों के साथ मुक्त हो जाते हैं .मन्त्र ग्रहण करने मात्र से मनुष्य अपने करोड़ों जन्मों के संचित पापों से मुक्त हो कर शुद्ध हो जाते हैं .इस प्रकार अपने पुत्र ,स्त्री, शिष्य ,सेवक और बंधुओं को जो सन्मार्ग प्रदर्शित करता है ,उसकी निश्चित सद्गति होती है . जो गुरु अपने शिष्य को गलत मार्ग दिखाता है वह कुम्भीपाक नरक में तब तक पडा रहता है जब तक सूर्य और चन्द्र का अस्तित्व रहता है .वे गुरु, भाई,पिता आदि निंदनीय हैं जो भगवान् श्री कृष्ण की भक्ति प्रदान नहीं करते .हे चतुरानन ! तुमने बिना कारण ही मुझे श्राप दिया है अतः उचित है की मैं भी तुम्हे श्राप दूँ .क्योंकि मारने वाले को पंडित भी मारते हैं .मेरे श्राप से प्रत्येक विश्व में तुम्हारे कवच ,स्तोत्र ,पूजा और मन्त्र लुप्त रहेंगे .तुम सभी विश्वों में तीन कल्पों तक अपूजनीय रहोगे .इस समय तुम्हारा यज्ञ भाग बंद हो जाएगा ." ऐसा कह कर नारद चुप हो गए और ब्रह्मा भी दुःख भरे ह्रदय से बैठे रहे . पुराण साक्षी हैं की ब्रह्मा के ये श्राप अंततः सत्य सिद्ध हुए
वेद व्यास जी ने भगवान् शिव की आराधना कर उन्हें अपने पुत्र शुकदेव के रूप में प्राप्त किया था. शुकदेव जन्म लेते ही तपस्या के लिए वन मेंजाने लगे तो पिता वेदव्यास को व्याकुलता होने लगी और उन्होंने शुक देव को जनक का उदाहरण देकर विवाह करने का उपदेश दिया . शुकदेव ने तर्क दिया --------------------------- की पत्नी जीवन भर जोंक की तरह पति का खून चूसती है .. चिंतित ऋषि वेदव्यास ने पहले तो पुत्र शुकदेव को समाधि से उठाने के लिए भगवान् कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करने वाले श्लोको की रचना की जिसे सुनकर शुकदेवजी ने सामाधि त्याग दी और अपने पिता से भगवान् श्रीकृष्ण की और कथाएं सुन ने का आग्रह किया जिस के कारण वेदव्यासजी ने भागवत पुराण की रचना की जिसे भगवान् श्रीकृष्ण का वांग्मय रूप माना जाता है . फिर पुत्र शुकदेव को मिथिला के राजा जनक का उदाहरण दिया जो राजा होकर भी महान योगी थे और राजर्षि कहे जाते थे . शुकदेवजी ने योग की सिद्धियों को किनारे कर जनक से आत्मज्ञान प्राप्त किया और विवाह कर पांच संतानों को जन्म दिया . समय आने पर उन्होंने समाधी के द्वारा शरीर त्याग दिया और अव्यक्त प्रकृति में प्रकाश की तरह लीन हो गए . उनके मोक्ष से दुखी पिता ने भगवान् शिव से प्रार्थना की और शुकदेव को छायापुरुष के रूप में अपने निकट प्राप्त किया .इस तरह अव्यक्त परम ब्रह्म ने समय अनुसार सभी योगियों  और भक्तों को वैवाहिक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया .

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