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Thursday 13 June 2013

कृष्ण की अर्धांगिनी

श्रीकृष्ण को भारतीय धर्म और दर्शन में सृष्टि का आदि पुरुष माना गया है जो सभी देश -काल में ईश्वर का अवतार माने गए हैं. सारे पुराण उन्हें दिव्य पुरुष बताते हैं जिनके दिए हुए उपदेश भगवद गीता को योग शास्त्र में सबसे उत्कृष्ट माना जाता है. उनके भक्तों की गणना ब्रह्माजी भी नहीं कर पाते. उन्ही आदि पुरुष योगेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में अनेको पुराण उनके दिव्य गुण ,अस्तित्व और लीलाओं का वर्णन करते हैं. भागवत  पुराण को उनका वांग्मय स्वरूप कहा गया है. इस पुराण के आरम्भ मैं ही भगवान् ने कहा है की -" सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था .मेरे अतिरिक्त स्थूल था सूक्ष्म और दोनों का कारण अज्ञान .जहां सृष्टि नहीं है वहां मैं ही मैं हूँ .इस सृष्टि के रूप में जो प्रतीत हो रहा है वह भी मैं हूँ .जो कुछ बचा रहेगा वह भी मैं हूँ .विद्यमान होने पर भी जो मेरी प्रतीति नहीं होती इसे मेरी माया ही समझना चाहिए. जैसे प्राणियों के पञ्च भूत रचित शरीर में पञ्च भूत शरीरों के कार्य रूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही कारण रूप में होने के कारण प्रवेश नहीं भी करते. वैसे ही मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु होने के कारण  उनमे प्रविष्ट नहीं भी हूँ. यह ब्रह्म नहीं ,यह ब्रह्म नहीं.. इस प्रकार निषेध की पद्धिति से और यह ब्रह्म है यह ब्रह्म है इस अन्वय की पद्धिति से यही सिद्ध होता है की सर्वातीत और सर्व रूप परमात्मा सर्वदा सर्वत्र स्थित है ,वे ही वास्तविक हैं .जो आत्मा या परमात्मा का तत्व
जानना चाहते हैं उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है."
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उनके लोक -'गोलोक' में घटी  अनेक घटनाओं का विस्तार से वर्णन है . इसी ग्रन्थ में कृष्ण द्वारा उनकी अर्धांगिनी श्रीमती राधाजी की उत्पत्ति तथा उनके पारस्परिक प्रेम मय सम्बन्ध, श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप तथा सृष्टि के विषय में उनके क्रिया कलापों का भी वर्णन है. उनका मूल मन्त्र है ,-‘राम रासेश्वर्ये नमः !’  क्यूंकि राधाजी श्रीकृष्ण के रास मंडल में उनके सृष्टि करने की इच्छा की पूर्ति के लिए उनके बाएं अंग से उत्पन्न हुयी थीं अतः उनका नाम "रा" से आरम्भ होता है. प्रकट होते ही वह श्रीकृष्ण के पथ पर फूल बिछाने के लिए भागी थीं जिसके लिए संस्कृत शब्द 'धाव' है ,अतः धा अक्षर मिला कर उनका नाम हुआ राधा. उनके नाम का एक दूसरा अर्थ भी है .' रा ' अर्थात दान देने वाली ; 'धा 'अर्थात मोक्ष देने वाली . संसार से मोक्ष देने वाली शक्ति हैं राधा. राधाजी के गुणों के कारण उनके सोलह नामो का उल्लेख है जो इस प्रकार हैं ,-राधा , रासेश्वरी (रासेश्वर की पत्नी), रास वाहिनी (रास में निवास करने वाली ),रसिकेश्वरी (रसिक देवियों की अधीश्वरी ),कृष्ण प्राणाधिका (कृष्ण के प्राणों से भी अधिक प्रिय ),कृष्णप्रिया (सदा कृष्ण की प्रिय),कृष्ण स्वरूपिणी (सभी अंशों में कृष्ण के समान तथा लीला से कृष्ण का रूप धारण करने वाली ),कृष्ण वामांग संभूता (कृष्ण के बाएं  अंग  से उत्पन्न), परमानन्द  रूपिणी(परम आनंद की राशि ), कृष्णा(कृष्ण का दान करने में समर्थ ), --------------(वृन्दावन की स्वामिनी ), वृंदा( सखियों  के समूह  वाली  ), वृन्दावन  विनोदिनी  (वृन्दावन में अधिक  विनोद  प्राप्त  करने वाली ),चन्द्रावली  (मुख  चन्द्र  तथा नख  चन्द्र  की अवली  से युक्त) ,चंद्रकांता(जिनकी  चमक चन्द्रमा  के समान  निरंतर  बनी  रहती  है  ), शरद  चंद्र  निभानना ( शरद  ऋतू  के  चन्द्रमा  की तरह चमकने वाली  ), (अध्याय १७ श्री कृष्ण जन्मखंड ब्रह्म वैवर्त पुराण )
सृष्टि के परम पुरुष भगवद्गीता के उपदेशक श्री कृष्ण ने अपनी अर्धांगिनी राधा की सबसे पहले सोलह उपचारों से पूजा अर्चना की.  ध्यान देने की बात है की उपचार कहते हैं - रोग का इलाज करने वाली औषधि या दवा को. राधा जी की जिन सोलह उपचारों से पूजा का उल्लेख है वे वास्तव में सोलह उपहार अर्थात भेंट में दिए जाने वाले पदार्थ हैं. इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है की पति द्वारा पत्नी को उपहार देना ही उनके मधुर सम्बन्ध का उपचार है.
श्री कृष्ण ने जिन सोलह उपहारों से राधा की पूजा की, वह हैं,- आसन , वस्त्र , पाद्य अर्थात पैर धोने का जल, अर्घ्य अर्थात जल अर्पण,लेपन अर्थात मलने का पदार्थ , सुगंध , अर्थात इत्र,धूप अर्थात पूजा में जलने वाला सुगन्धित पदार्थ,दीप,पुष्प अर्थात फूल,स्नान,आभूषण,नैवेद्य अर्थात फल ,ताम्बुल अर्थात पान , जल अर्थात पीने का पानी ,मधुपर्क अर्थात शहद और शैया अर्थात पलंग. .
इस पुराण के अध्ययन से स्पष्ट होता है की राधा कृष्ण गोलोक में पति पत्नी थे किन्तु कृष्ण के एक अन्य गोपी विरजा के साथ अन्तरंग सम्बन्ध से दुखी होकर राधा ने उन्हें गोलोक से गिर कर पृथ्वी पर मनुष्य रूप में जन्म लेने का  श्राप दिया जिसके कारण उनका मथुरा में जन्म हुआ . राधा को कृष्ण के एक अन्तरंग गोप श्रीदामा के श्राप के कारण किसी अन्य पुरुष की  पत्नी बन कर पृथ्वी पर रहना पड़ा . किन्तु गोलोक से विदा लेते समय कृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया की वह जन्म लेते ही उनके निकट पहुँच जायंगे और गुप्त रूप से उन से विवाह कर सपने में नित्य मिलते रहेंगे. श्राप की अवधि समाप्त होने के बाद वह फिर से अपने लोक पहुँच कर उनके साथ रहेंगे. उनके शाश्वत सम्बन्ध का ज्ञान उन्होंने गर्ग ऋषि को दिया जिन्होंने नियत समय पर यह गुप्त सन्देश कृष्ण के दत्तक पिता नन्द बाबा को दिया और उनके आदेश के अनुसार नन्द शिशु कृष्ण को ले कर भांडीर वन पहुंचे जहा उन्होंने राधा के दर्शन पाकर उन की चरण वंदना की और उन से यह वरदान माँगा  की राधा माधव के युगल चरणों में उन की भक्ति सदा बनी रहे . राधाजी ने उन्हें वरदान दियाप्रसन्न चित्त नन्द अपने सौभाग्य को सराह  कर  घर लौट गए . शिशु कृष्ण ने गोप वेश में प्रकट होकर ब्रह्मा जी का आव्हान किया और वैदिक रीति से राधा के साथ गुप्त विवाह किया.
भांडीर वन में गुप्त विवाह  के पश्चात कृष्ण ने उन्हें गोलोक में श्रीदामा के श्राप के कारण भारत में अलग अलग परिवारों में जन्म लेने की घटना का स्मरण कराते हुए कहा,-" राधे !तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो. जैसी तुम हो वैसा मैं हूँ ,निश्चय ही हम दोनों में भेद नहीं है .जैसे दूध में धवलता ,अग्नि में दाहिका शक्ति और पृथ्वी में गंध है ,उसी तरह मैं निरंतर तुम में हूँ . जैसे कुम्हार मिटटी के बिना बर्तन नहीं बना सकता;स्वर्णकार सोने के बिना गहने नहीं बना सकता, वैसे ही तुम्हारे बिना मैं सृष्टि नहीं बना सकता. तुम सृष्टि की आधारभूता हो. मैं अच्युत बीज रूप हूँ .पतिव्रते! मुझे अपने वक्ष स्थल से लगा लो. जैसे आभूषण शरीर की शोभा के लिए है,उसी प्रकार तुम मेरी शोभा हो .जब मैं तुम से अलग रहता हूँ तब लोग मुझे 'कृष्ण' कहते हैं ,पर जब तुम साथ हो जाती हो तो वे ही लोग मुझे श्रीकृष्ण कहते हैं.तुम्ही श्री हो ,तुम्ही संपत्ति हो ,तुम्ही आधार स्वरूपिणी हो.तुम समस्त शक्ति स्वरूपा हो  तथा मैं अविनाशी स्वरूप हूँ. जब मैं तेज स्वरूप रहता हूँ, तब तुम भी तेज स्वरूपा रहती हो.जब मैं शरीर रहित  होता हूँ तब तुम भी शरीर रहित हो जाती हो. सुंदरी ! मैं सदा तुम्हारे संयोग द्वारा समस्त बीज रूप होता हूँ. तुम शक्ति स्वरूपा तथा समस्त स्त्रियों का रूप धारण करने वाली हो .मेरे अंग स्वरूप तुम ईश्वरी मूल प्रकृति हो .वरानने! (सुन्दर चेहरे वाली)!, शक्ति ,बुद्धि और ज्ञान में तुम मेरे ही समान हो .जो नर हम दोनों में भेद - भाव करता है, वह काल सूत्र नामक नरक में चन्द्र और सूर्य के रहने तक निवास करता है. वह अपनी पहले और बाद की सात पीढ़ियों को नरक में गिरा देता है. जो हम दोनों की निंदा करता है, वह सूर्य और चन्द्र के रहने तक घोर नरक में पकाया जाता है .'रा' अक्षर का उच्चारण करने वाले को मैं उत्तम भक्ति प्रदान करता हूँ. उसके बाद 'धा' अक्षर का उच्चारण करने वाले के पीछे मैं इस लिए जाता हूँ की मुझे राधा शब्द सुनने का लोभ रहता है. जो जीवन भर सोलह उपचारों से मेरी सेवा करते हैं उन पर मेरी जो प्रीती होती है वही प्रीती राधा शब्द के उच्चारण करने वाले पर होती है. राधे ! तुम भी मुझे उतनी प्रिय नहीं हो जितना की राधा नाम कहने वाला प्रिय है. सभी देवी देवता भी मेरे प्रिय हैं, किन्तु वे राधा नाम कहने वाले के समान प्रिय नहीं हैं. वे सब मेरे प्राण के समान हैं, और सती राधे ! तुम मेरे प्राणों से भी अधिक हो. वे सब भिन्न भिन्न स्थानों में रहते हैं और तुम मेरे वक्ष स्थल में विराजमान हो. मेरी चार भुजा वाली मूर्ति अपनी प्रिया को वक्षस्थल पर धारण करती है और मैं कृष्ण स्वरूप होकर सदा तम्हारा भार वह करता हूँ." 
योगेश्वर होने के कारण श्रीकृष्ण को अपने और राधा के पूर्व जन्म के घटनाक्रम का स्मरण था और उन्होंने गोलोक में राधा को जो वचन दिया था की श्रीदामा के श्राप के कारण राधा पृथ्वी पर किसी अन्य पुरुष की पत्नी बनेंगी पर फिर भी उनके शाश्वत साथी कृष्ण उनके निकट ही रहेंगे और स्वप्न में उन्हें अपना सान्निध्य नित्य देते रहेंगे,उस वचन का पालन पूर्ण निष्ठां से किया. राधा की विरह व्यथा भांडीर वन में श्रीकृष्ण को जीवन साथी के रूप में पाकर दूर होगई और श्रीकृष्ण निरंतर उनसे आत्म रूप से जुड़े रहे.
जब श्रीकृष्ण गोकुल छोड़ कर मथुरा जाने लगे तब उन्होंने अपनी शाश्वत अर्धांगिनी, राधा को उत्तम आध्यात्मिक योग का उपदेश दे कर कहा,-" श्राप के कारण कुछ दिन हमारा वियोग रहेगा और फिर पुनः मिलन होगा.मैं तुम्हे आध्यात्मिक योग बता रहा हूँ जो शोक नाशक, हर्षप्रद, तत्व रूप और मन को सुख देने वाला है. मैं सब का अंतर आत्मा,सभी कर्मों से निर्लिप्त , सब में विद्यमान और सर्वत्र अदृष्ट  रहता हूँ.जिस तरह वायु सब जगह गमन कर के भी लिप्त नहीं होता, उसी तरह मैं भी हूँ.मैं सभी कर्मों का साक्षी हूँ.समस्त शरीरों में रहने वाला जीव मेरा प्रति बिम्ब है .जीव पाप -पुण्य का कर्त्ता और भोक्ता है .जिस प्रकार जल से भरे घड़े में सूर्य -चन्द्र का प्रतिबिम्ब दीखता है और घड़ा फूटने पर प्रति बिम्ब गायब हो जाता है वैसे ही जीव देह छूटने पर मुझ में विलीन हो जाते हैं. हम दोनों सभी प्राणियों में निरंतर विद्यमान रहते हैं. मैं आधार हूँ और जगत आधेय. आधार के बिना आधेय उसी तरह नहीं रह सकता जैसे कारण के बिना कार्य नहीं होता.
सभी वस्तुएं नश्वर हैं.
प्रकृति मेरा ही अंश है. सभी देवता और प्राणी प्रकृति से उत्पन्न हैं. मैं सबका आत्मा और भक्तों के अनुरोध के कारण अमर देह धारण करने वाला हूँ. प्रकृति से उत्पन्न जीव प्रकृति के लय होने पर नष्ट हो जाते हैं. केवल मैं ही सृष्टि के पहले और बाद भी रहता हूँ . जैसे दूध से धवलता अलग नहीं है उसी तरह हम और तुम हैं. हम दोनों में कभी भी भेद नहीं होता है .यह निश्चित है. सृष्टि में मैं महा विराट हूँ जिस के रोम कूपों में सारा जगत स्थित है. तुम अपने अंश से उसकी पत्नी -'महती' होकर रहती हो. जब मेरे विष्णु रूप के नाभि कमल से विश्व उत्पन्न होता है, तब तुम अपने अंश से उसकी पत्नी 'बृहती 'हो कर रहती हो. वैकुण्ठ में मेरे विष्णु रूप के साथ तुम लक्ष्मी हो कर रहती हो; ब्रह्मलोक  में तुम सावित्री; शिवलोक में शिवा;दुर्ग राक्षस का वध  करने वाली दुर्गा; तथा समस्त स्त्री रूपा हो. समस्त पुरुष, मेरा स्वरूप तथा समस्त स्त्रियाँ, तुम्हारा स्वरूप हैं. अग्नि के रूप में मैं, तुम्हारेस्वाहारूप से ही जलाने की शक्ति पाता हूँ; सूर्य रूप में तुम्हारे प्रभारूप से प्रकाश फैलाता हूँ चन्द्र रूप में मैं तुम्हारेशोभारूप से मनोहर होता हूँ. मेरे इन्द्र रूप के साथ तुम शची; धर्म रूप के साथ मूर्ति; यज्ञ रूप के साथ दक्षिणा; पित्र रूप के साथ स्वधाहो.मैं पुरुष हूँ, तुम प्रकृति. तुम संपत्ति रुपा हो, मैं तुम्हारे साथ रहने से ही ईश्वर हूँ. जिस प्रकार कुम्हार मिटटी के बिना घडा नहीं बना सकता, उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टि नहीं कर सकता. तुम कांती,शान्ति,पुष्टि,क्षमा,लज्जा,क्षुधा,तृष्णा,दया,निद्रा,श्रद्धा,तन्द्रा,मूर्छा,क्रिया,भक्ति और देह धारियों की देह स्वरूपा हो. तुम सदा मेरी आधार हो और मैं तुम्हारा आत्मा हूँ. अतः जैसी तुम हो वैसा ही मैं भी हूँ. प्रकृति -पुरुष दोनों समान हैं .इन दोनों में से एक के बिना भी सृष्टि नहीं हो सकती.” इस प्रकार राधा को आध्यात्मिक योग का उपदेश देकर श्रीकृष्ण ने उनके मोह को दूर कर उन्हें अपने और राधा के सर्व व्यापी अस्तित्व का बोध कराया जिससे राधा का शोक दूर हो गया और वह कृष्ण के लोक वापस पहुँचने की प्रतीक्षा करती हुयी एक योगिनी का जीवन व्यतीत करती रहीं .किसी भी सम्बन्ध की परिणति जब तक आध्यात्मिक सम्बन्ध में नहीं होती तब तक दो व्यक्तियों में पूर्ण एकत्व की अनुभूति संभव नहीं है. केवल आत्मदर्शी व्यक्ति ही सम्बन्ध की पूर्णता का अनुभव कर पाते हैं जहाँ मोह नहीं होता , कोई किसी को अपने सुख के लिए प्रयोग नहीं करता बल्कि  उसमें निहित ईश्वर की स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करता है .ऐसे सम्बन्ध में ही शाश्वत शांति और निर्भयता स्थाई रूप से विद्यमान रहते हैं . सम्बन्ध की मधुरता इसी शांतिपूर्ण अवस्था से आती है.

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