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Saturday 15 June 2013


ब्रह्मा -विष्णु -महेश को भगवती का आदेश 

एक बार वेदव्यास जी ने नारद जी से विश्व की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न किया तो उन्होंने कहा ,-"मेरे पिता ब्रह्मा से यही पूछने पर उन्होंने मुझे बताया था की जब कमल पर उनका जन्म हुआ तो यही जिज्ञासा जागने पर उन्हें तप करने का आदेश आकाशवाणी से प्राप्त हुआ .हजारों वर्षों के तप के बाद ब्रह्माजी को आकाशवाणी ने कहा ,-"सृष्टि करो ".उसी समय मधु और कैटभ नाम के दो भयानक दानव वहां आकर ब्रह्मा से युद्ध की इच्छा प्रकट करने लगे. भयभीत ब्रह्मा कमल का डंठल पकड़ कर नीचे उतरने लगे .वहां उन्हें चतुर्भुज विष्णु के दर्शन हुए जो सो रहे थे .ब्रह्मा ने भगवती योगनिद्रा को याद किया. वह देवी विष्णुजी के शरीर से निकल कर आकाश में स्थित हो गयी. उनके निकलते ही विष्णु जाग गए और मधु तथा कैटभ के साथ युद्ध करने लगे. देवी के कटाक्ष से दोनों दानव मोहित हो गए  तब विष्णुजी ने उन्हें मार दिया. तभी वहां भगवान् रूद्र भी प्रकट हो गए .तब तीनो देवों को भगवती के दर्शन हुए .तीनो ने उनकी स्तुति की. तब प्रसन्न होकर देवी बोली,-"ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर !तुम सावधान हो कर अपने अपने कार्य में लग जाओ .सृष्टि ,स्थिति और संहार ये तुम्हारे कार्य है ,तुम्हे अपना स्थान बना कर शान्ति से निवास करना चाहिए". तीनों ने देवी से कहा,-"माता! हम किस प्रकार से इस कार्य में सफल होएँगे ?" देवी मुस्कुराने लगी. तभी एक विमान आकाश से उतरादेवी ने कहा ,-"देवताओं निर्भीक होकर इस विमान में प्रवेश करो .आज मैं तुम्हे एक अद्भुत दृश्य दिखाउंगी." तीनों उस विमान में बैठ गए .देवी ने उस विमान को आकाश में उड़ा दिया. मन की गति से चलने वाले इस विमान में बैठ कर तीनों एक अपरिचित स्थान पर पहुंचे .जहाँ फल, फूल, पक्षी-पशु आदि का अद्भुत सौन्दर्य था .सुन्दर नगर स्त्री -पुरुष, झरने, महल आदि से  सुशोभित था. वहां यज्ञशाला भी थी .वहां के राजा दिव्य थे .फिर विमान नंदन वन पहुँच गया जहाँ अप्सरा, यक्ष, गन्धर्व और विद्याधर थे. इन्द्र और शची के इस लोक के बाद विमान ब्रह्म लोक, कैलाश, वैकुंठ लोक आदि घुमाता रहा .अनेको लोको में घूमता हुआ विमान उन्हें भगवती भुवनेश्वरी देवी के लोक में ले गया . वहां देवी के हजारों नेत्र, हजारों हाथ,हज़ारों मुख थे . भगवान्  विष्णु जान गए कि वे ही महामाया जगदम्बिका थी. ब्रह्मा ने उनके पैरो के नाखुनो में सारे लोकों के दर्शन किये. तीनो ने भगवती महामाया की स्तुति की .तब प्रसन्न होकर देवी ने कहा ,-" मैं और ब्रह्म एक हैं .हम में कोई भेद नहीं है .बुद्धि के भ्रम से भेद दीखता है. जो हमारे सूक्ष्म भेद को जानता है वही बुद्धिमान है .केवल संसार रचाने के लिए दो रूप धारण करते है .कार्य -कारण के भेद से हमारा प्रतिबिम्ब अलग अलग झलकता है .सब कुछ मेरे ही स्वरूप हैं.यदि मैं शक्ति हट जाऊं तो कोई भी प्राणी हिल -डुल सके.आज पृथ्वी नहीं है .उसके परमाणु तक नष्ट हो चुके हैं.ब्रह्माजी ! इस शक्ति को स्वीकार कर सृष्टि का निर्माण करो .इस प्रेयसी पत्नी को मेरी विभूति समझकर  आदर की दृष्टि से देखना.कभी भी इसका तिरस्कार मत करना .इसे साथ ले कर सत्य लोक जाओ .विष्णु !महालक्ष्मी को लेकर तुम भी जाओ.यह सदा तुम्हारे वक्ष स्थल में निवास करेगी . विनोद करने के लिए मैंने इसे तुम्हे दिया है .कभी इसका तिरस्कार कर के इसका आदर करना.अब तुम लक्ष्मी नारायण हो . महेश्वर! मन को मुग्ध करने वाली महागौरी को तुम पत्नी रूप से स्वीकार करो.इसके साथ कैलाश पर आनंद से रहो .मैं सदा कारण हो कर रहती हूँ. मेरा विग्रह सबसे उत्तम है. परमात्मा के पास में निर्गुण रहती हूँ .परमात्मा आदि पुरुष है. वह कार्य है कारण .कोई कठिन कार्य होने पर मेरा स्मरण करना, मैं सामने जाउंगी ."जगदम्बिका के विदा करने पर तीनो देवता अपनी पत्नियों के साथ चल पड़े और अपने कर्तव्य में लग गए.  इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पत्नी, देवी का ही अंश है और उसका तिरस्कार या अपमान करने का अधिकार किसी पति को नहीं है. जो पति एसा करते हैं  वे समय आने पर प्रकृति के प्रकोप का शिकार अवश्य बनते हैं .   

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