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Saturday 15 June 2013


प्रकृति -पुरुष का सम्बन्ध 
संस्कृत देव वाणी है.इसके प्रत्येक अक्षर में दैवीय ऊर्जा का निवास है .ज्ञानी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को उसके गुणों के आधार पर नाम देकर संबोधन करते हैं . जो अपनी कृति को प्रकट करती है वह प्रकृति है और जो  पुर में शयन करता है उसे पुरुष कहा गया है. अतः हर अस्तित्व में आत्मा पुरुष है तो शरीर प्रकृति. स्त्री हो या पुरुष या कोई और प्राणी, प्रकृति और पुरुष सब के अस्तित्व के आधार हैं. सृष्टि के परम पुरुष श्रीकृष्ण अपनी अर्धांगिनी राधा के बिना असमर्थ हैं, शिव पार्वती के बिना स्वयं को शव कहते हैं पर आश्चर्य है के अधिकतर धर्म गुरु अपने को अर्धांगिनी के बिना कैसे परम हंस मानते हैं ? यही नहीं अनेक धर्म गुरुओं को मैंने अपने प्रवचन में महिलाओं के लिए व्यंगात्मक भाषा का प्रयोग करते देखा है . यह सोच कहाँ से आयी है यह भी विचार करने का विषय है . संभवतया अर्धांगिनी से वंचित रह जाने के कारण ही ऐसे धर्मगुरु महिलाओं पर व्यंग कस कर अपने व्यक्तिगत असंतोष को छिपाने का प्रयास करते हैं .
ब्रह्म वैवर्त पुराण में कथा है की एक बार पार्वती ने पुत्र पाने के लिए भगवान् शिव से अनुरोध किया तो पति शिव ने उन्हें पुन्यक व्रत का अनुष्ठान कर भगवान् विष्णु से वरदान में पुत्र पाने का मार्ग दिखाया . देवी पार्वती ने पति के मार्ग दर्शन के अनुसार वर्ष भर व्रत का अनुष्ठान किया और व्रतके अंत में यज्ञ का आयोजन कर सभी देवी देवताओं और ऋषियों को उत्सव में सम्मिलित होने का आमंत्रण दिया . ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनत्कुमार जिन्होंने अपना शरीर सदा के लिए पांच वर्ष के बालक का ही रखा है उस यज्ञ के पुरोहित बनाये गए . विधि विधान से पति पत्नी शिव पार्वती ने यज्ञ संपन्न किया . पुराण के अनुसार यग्यदेव की अर्धांगिनी देवी दक्षिणा हैं क्योंकि उनके बिना यज्ञ देव यज्ञ करने वाले को उसका फल नहीं दे पाते . यज्ञ की समाप्ति दक्षिणा से ही होती है.पार्वती के यग्य में पुरोहित सनत्कुमार ने उनसे कहा,-"हे सुव्रते ! मुझे दक्षिणा में अपना पति प्रदान करो ." यह सुनकर देवी पार्वती माया मोहित चित्त होने के कारण बेहोश होकर गिर पडीं .यज्ञ में आये मुनियों ने हंस कर भगवान् शिव को पार्वती को समझाने के लिए उनके पास भेजा. महादेव शिव पार्वती के पास जा कर बोले ,-"हे भद्रे ! उठो .तुम्हारा अवश्य कल्याण होगा .चैतन्य होकर हमारी बात सुनो " पार्वती को अपने वक्ष से लगाकर पति महादेव उन्हें सचेत करने लगे .चेत आने पर वह पार्वती से बोले ,-"हे देवी !वेद  के अनुसार दक्षिणा सभी कर्मों का सार भाग है .जो कर्म दक्षिणा के बिना किया जाता है, वह निष्फल होता है .उस कर्म के कारण दाता कालसूत्र नरक में जाता है और अंत में दरिद्री होकर शत्रु से पीड़ित होता है .इस समय यदि ब्राह्मण को दक्षिणा नहीं दी गयी तो इस मुहूर्त के बीत जाने के बाद दोगुनी ,दिन बीत जाने पर चार गुनी, पक्ष बीत जाने पर सौ गुनी, एक माह बीत जाने पर पांच सौ गुनी ,छः माह बीत जाने पर दो हज़ार गुनी और एक वर्ष बीत जाने पर यज्ञ कर्म को निष्फल कर देती है.” वहां उपस्थित सभी देवताओं ने पार्वती को दक्षिणा में अपने पति का दान करके अपने धर्म की रक्षा की सलाह दी .दुविधा  से ग्रस्त  पार्वती सबके सामने बोलीं ,-"हे देव और मुनिगण !मुझे कर्म और धर्म से क्या लेना  और पुत्र और धर्म लेकर मैं क्या करूंगी क्यूंकि पति ही दक्षिणा में जा रहा है ....यदि भूमि की अर्चना हो तो वृक्ष की अर्चना का क्या फल होगा ?पतिव्रता के लिए पति सौ पुत्रों के समान होता है .पुत्र पति का अंश होता है .उसका कारण पति ही होता है ..."
विष्णु भगवान् बोले ,-"पति पुत्र से बढ़ कर अवश्य होता है किन्तु धर्म पति से भी उत्तम है . धर्म के नष्ट हो जाने पर पति या पुत्र से क्या प्रयोजन ?"ब्रह्मा,धर्म और अन्य देवताओं ने भी पति का दान देकर अपने धर्म की रक्षा करने के लिए पार्वती से कहा . पत्नी को पति को दान करने का अधिकार है या नहीं इस विषय पर सभी देवी देवताओं ने अपने तर्क दिए. प्रक्रति -पुरुष अर्थात पत्नी और पति में कौन किसका दान देने में समर्थ है उस विषय में वाद विवाद होने पर पार्वती ने स्तोत्र जप कर भगवान् नारायण से शंका का समाधान करने का आग्रह किया .स्तुति से प्रसन्न भगवान् नारायण दिव्य तेज से प्रकट हुए और बोले ,-"बुद्धि स्वरूप पार्वती  से देवताओं का वाद विवाद करना उचित नहीं है .क्यूंकि समस्त विश्व में सभी लोग उसी शक्ति द्वारा सशक्त और जीवित हैं.ब्रह्मा अदि सभी जीव प्रकृति के अंश हैं .यह बात सत्य और दृढ सत्य है की मैंने पुरुष के बिना ही शक्ति को प्रकाशित किया है. सृष्टि में वह देवी मेरी इच्छा से मेरे द्वारा प्रकट होती है. सम्पूर्ण सृष्टि का संहार होने पर वह मुझ में लीनं हो जाती है .प्रकृति सृष्टि करने के नाते सब की जननी है .यह मेरी माया मेरे समान है अतः इसे नारायणी कहते हैं . मेरा ध्यान करते हुए शम्भू ने चिर काल तक तप किया था अतः उनके तप के फल के रूप में उन्हें मैंने इसे पत्नी रूप में सौंपा था . इन्होने यह व्रत लोकों को शिक्षा देने के लिए किया है. इसमें इनका कोई स्वार्थ नहीं है .क्योंकि तीनों लोकों में व्रतों और तपस्याओं का फल यह स्वयं प्रदान करती है . तुम सभी माया से मोहित हो गए हो नहीं तो इनका यह वास्तविक व्रत है क्या ?ब्रह्मा ,शक्ति और महेश मेरे अंश हैं .जिस प्रकार कुम्हार बिना मिट्टी के मटका  बनाने में असमर्थ होता है उसी प्रकार मैं भी बिना शक्ति के सृष्टि करने में असमर्थ रहता हूँ .सृष्टि में शक्ति प्रधान है .मैं निर्लिप्त ,अदृश्य और सभी देह धारियों का साक्षी आत्मा हूँ .प्रकृति सब की आधार है. मेधा ,निद्रा आदी सब प्रकृति के कलाएं हैं .यह प्रकृति हिमालय की कन्या है . हे शिवे !शिव को दक्षिणा में देकर तुम अपना व्रत पूरा करो .फिर उचित मूल्य देकर अपना पति ग्रहण करो.ब्राह्मण को गौ मूल्य देकर अपना  पति लौटा लो .जिस प्रकार पति दक्षिणा देने में समर्थ होता है उसी प्रकार यह भी पति का दान करने में समर्थ है ." देवी पार्वती ने भगवान् नारायण के मतानुसार अपने पति महादेव का दान पुरोहित सनत्कुमार को कर के अपने अनुष्ठान को पूर्णकर पुत्र प्राप्त करने का आशीर्वाद पाया और फिर गायों का मूल्य देकर अपने पति को वापस ले लिया .हरिवंश पुराण के अनुसार द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की मानिनी पत्नी सत्यभामा ने भी अपने पति कृष्णको दान में ऋषि नारद को दिया था . भारतीय दर्शन के महादेव और आदि पुरुष श्रीकृष्ण ने आदर्श पति होने का धर्म निभाया और पुरुषों के सामने दृष्टांत प्रस्तुत किया की पति और पत्नी के धर्म और अधिकार समान हैं.
इस दृष्टांत के माध्यम से भगवान् ने पत्नी और पति के नैसर्गिक समान अधिकार की पुष्टि की .आज के वैज्ञानिक युग में भी यदि शिक्षित पुरुष इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाते तो उनके इस भ्रामक व्यवहार को उनकी मानसिक अपंगता ही कहा जा सकता है . भगवान् नारायण का यह कथन स्पष्ट करता है की भगवान् शिव ने भी तपस्या के द्वारा  ही माता पार्वती को अर्धांगिनी के रूप में प्राप्त किया था. महिलाओं को अपने उपभोग की वस्तु समझने वाले अहंकारी पुरुषों को यह सत्य स्वीकार करना चाहिए की जो परंपरा आदि पुरुष श्रीकृष्ण और महादेव शिव ने आरम्भ की उसका उल्लंघन करना कितना बड़ा अपराध है .
यह एक आध्यात्मिक सत्य है की प्रत्येक जीवात्मा का  एक निहित आत्मिक  साथी होता है जो अनेक जन्मों की तपस्या के फल स्वरूप उसे मिलता है और जिसके संयोग से समाज को कुछ महान उपलब्धि अवश्य होती है
भा’  धातु ज्ञान का प्रतीक है .भारत उस देश का नाम है जहाँ प्राचीन काल में ऋषि लोग आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान की तलाश में रत रहे थे .आध्यात्मिक रूप से जागृत होने के कारण उस समाज में विवाह का आधार केवल भावना थी. अनेक पुराण यह बताते हैं की कई पुरुषों या भाईयों ने एक स्त्री से विवाह किया. स्वयं कृष्ण की माता देवकी की अनेक बहनों ने महात्मा वासुदेव से विवाह किया था. भागवत पुराण के अनुसार उनकी अट्ठारह पत्नियाँ थी जो कृष्ण से पुत्र के रूप में इतना  स्नेह करती थीं की उन्हें देख सभी माताओं के  आँचल दूध से भीग जाते थे. कृष्ण के व्यक्तित्व की विराटता यह स्पष्ट करती है की उन्होंने सभी माताओं को कितना सम्मान और स्नेह दिया होगा. पुरुषों के आध्यात्मिक पतन के कारण उन्होंने ऐसी  मान्यताएं अपनायीं जिसमे स्त्री को नरक का द्वार माना जाने लगा .किन्तु योग शास्त्र के अनुसार ईश्वर पुरुषों की संपत्ति नहीं है .वह समान रूप से स्त्री और पुरुष में आत्मा के रूप में विराजमान है . भगवान् शिव ने स्कन्द पुराण में  स्पष्ट किया है की स्त्री के शरीर  में पुरुष के शरीर से  बीस                 अधिक मांस पेशियाँ होती है . जननी होने के नाते स्त्री के शरीर में उसके नैसर्गिक दायित्व के अनुरूप विशिष्ट  अंग भी प्रकृति ने दिए हैं . तंत्र शास्त्र की दृष्टि से मनुष्य के प्रत्येक अंग में देव गण सूक्ष्म रूप से विराज मान रहते हैं . नव रात्री के पावन दिनों में देवी के जिन नौ रूपों की उपासना, पूजा और अर्चना की जाती है वह सभी देवी की शक्तियां सूक्ष्म रूप से  स्त्री के गुह्य अंग में समाहित हैं जिनका मन्त्र उपचार से पूजन करना पति का कर्त्तव्य है. जब योगेश्वर कृष्ण और महादेव  शिव अपनी अर्धांगिनी की तंत्र शास्त के अनुसार श्रृद्धा से उपासना करते हैं तब अन्य पतियों को अपनी पत्नी या किसी भी अन्य स्त्री के साथ इससे विपरीत व्यवहार करना कितना धर्म विरुद्ध आचरण है यह पुरुषों को समझना चाहिए . साधारण पुरुषों का अपने को पत्नी से श्रेष्ठ या उनका नियंत्रक  मानना उनका भ्रम मात्र है जो उनकी आध्यत्मिक  दयनीयता का परिचायक है .
वस्तुतः पुरुष वर्ग की अध्यात्मिक ज्ञान हीनता और अहंकारी बुद्धि  ने ही भारत का विनाश किया जिसे काल चक्र  की महिमा ही कहा जा सकता है . मंदिर में देवी की मूर्ति की पूजा की जाने लगी और परिवार में उन्हें पिता, भाई, पति आदि के अधीन रखने की प्रथा चला दी गयी. दहेज़ लेने देने की कुप्रथा ने बेटी को बोझ और बेटे को बुढापे का सहारा बना दिया जिसका परिणाम हुआ कन्या भ्रूण ह्त्या और दहेज़ लाने पर बहुओं की हत्या. संबंधों  की अध्यात्मिक विरासत का स्थान ले लिया व्यापारिक सूझ - बूझ ने .मानवीय सम्बन्ध एक आर्थिक अनुबंध बन कर रह गए. संभवतया पुरुष वर्ग ने ऐसा  इस लिए किया की वह स्वछंद जीवन जी सकें और उन पर कोई अंकुश रहे .किन्तु अहंकारी पुरुष यह भूल गए की सृष्टि जीवित और जागृत हैं. उनके कर्म और विचार सृष्टि के तत्वों पर विजय नहीं पा सकते. अहंकारी व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष, उसे रोग और शोक देकर प्रकृति अवश्य ही दंड देती है. भगवद गीता को मोक्ष दाई इसी लिए कहा गया क्यूंकि यह योग शास्त्र के विज्ञान को प्रकाशित करती है. योग शास्त्र के अनुसार स्त्री का अर्थ   है जो प्रसव करती है  और शूद्र का अर्थ है              तमो गुण प्रधान मनुष्य जिसकी चेतना निकृष्ट हो . संस्कृत भाषा के अन्वय की दृष्टि से शूद्र का अर्थ है जिसकी चेतना मूलाधार चक्र पर केन्द्रित हो या जो अति कामांध हो.

1 comment:

  1. jis din main tujhko dhund lu na us din tujhko thappad mar mar kar bataunga ki stri or purush main sa koyi mahan nehi

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